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द्वितीय स्थानपद]
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'अलोए पडिहता सिद्धा' की व्याख्या सिद्ध भगवान् लोकाग्र के आगे अलोकाकाश होने से अलोक के कारण प्रतिहत हो (रुक) जाते हैं। गति में निमित्त कारण धर्मास्तिकाय है। वह लोकाकाश में ही है, अलोकाकाश में नहीं होता। इसलिए ज्यों ही आलोकाकाश प्रारम्भ होता है। सिद्धों की गति में रूकावट आ जाती है। इस प्रकार वे धर्मास्तिकाय के अभाव के कारण प्रतिहत हो जाते हैं और मनुष्य क्षेत्र का परित्याग करके एक ही समय में अस्पृशद्गति से लोक के अग्रभाग (ऊपरी भाग) में स्थित हो जाते हैं।
चरमभव में सिद्धों का संस्थान —अन्तिम भव में जो भी दीर्घ (५०० धनुष), ह्रस्व (दो हाथ प्रमाण) अथवा विचित्र प्रकार का मध्यम संस्थान (आकार) उनका होता है, सिद्धावस्था में उससे तीसरा भाग कम आकार (संस्थान) रह जाता है, क्योंकि सिद्धावस्था में मुख, पेट, कान आदि के छिद्र भी भर जाते हैं; आत्मप्रदेश सघन हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि भवपरित्याग से कुछ पहले सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाती नामक तीसरे शुक्लध्यान के बल से मुख, उदर आदि के छिद्र भर जाने से जो त्रिभागन्यून संस्थान रह जाता है, वही संस्थान सिद्धावस्था में बना रहता है।
सिद्धों की अवगाहना—जिन सिद्धों की चरमभव में अन्तिम समय में ५०० धनुष की अवगाहना होती है, उनकी त्रिभागन्यून होने पर ३३३१), धनुष की होती है, यह सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना है। इस सम्बन्ध में एक शंका है, कि जैन इतिहासप्रसिद्ध नाभिकुलकर की पत्नी मरुदेवी सिद्ध हुई हैं। नाभिकुलकर के शरीर की अवगाहना ५२५ धनुष की थी, और इतनी ही अवगाहना मरुदेवी की थी; क्योंकि आगमिक कथन है—'संहनन, संस्थान और ऊंचाई कुलकरों के समान ही समझनी चाहिए।' अतः सिद्धिप्राप्त मरुदेवी के शरीर की अवगाहना में से तीसरा भाग कम किया जाए तो वह ३५० धनुष सिद्ध होता है। ऐसी स्थिति में ऊपर जो उत्कृष्ट अवगाहना ३३३१/, धनुष बतलाई हैं, उसके साथ इसकी संगति कैसे बैठेगी? इसका समाधान यह है कि मरुदेवी के शरीर की अवगाहना नाभिराज से कुछ कम होना सम्भव है; क्योंकि उत्तम संस्थान वाली स्त्रियों की अवगाहना उत्तम संस्थान वाले पुरुषों की अवगाहना से अपने अपने समय की अपेक्षा से कुछ कम होती है। इस उक्ति के अनुसार मरुदेवी की अवगाहना ५०० धनुष की मानी जाए तो कोई दोष नहीं। इसके अतिरिक्त मरुदेवी हाथी के हौदे पर बैठी-बैठी सिद्ध हुई थी, अतएव उनका शरीर उस समय सिकुड़ा हुआ था। इस कारण अधिक अवगाहना होना संभव नहीं है। इस प्रकार सिद्धों की जो उत्कृष्ट अवगाहना ऊपर कही गई है, उसमें विरोध नहीं आता।
सिद्धों की मध्यम अवगाहना चार हाथ पूर्ण और एक हाथ में त्रिभाग कम है। आगम में जघन्य सात हाथ की अवगाहना वाले जीवों को सिद्धि बताई गई है, इस दृष्टि से यह अवगाहना मध्यम न हो कर जघन्य सिद्ध होती है, इस शंका का समाधान यह है कि सात हाथ की अवगाहना वाले जीवों की
१. प्रज्ञापना, मलय वृत्ति, पत्रांक १०८