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[प्रज्ञापना सूत्र
जोणि-संसार-कलंकलीभाव-पुण्णब्भव-गब्भवासवसही-पवंचसमतिक्कंता' कहा गया है। अर्थ स्पष्ट है। अवेदा - सिद्ध भगवान् स्त्रीवेद और नपुंसकवेद (काम) से अतीत होते हैं। अर्थात्—शरीर का अभाव होने से उनमें द्रव्यवेद नहीं रहता और नोकषायमोहनीय का अभाव हो जाने से भाववेद भी नहीं रहता; इसलिए इन्हें अवेदी कहा है। अवेदणा—साता और असातावेदनीय कर्म का अभाव होने से वे वेदना से रहित होते हैं। 'निम्ममा असंगा य–ममत्व से तथा बाह्य एवं आभ्यन्तर संग (आसक्ति या परिग्रह) से रहित होने के कारण वे निर्मम और असंग होते हैं। संसारविप्पमुक्का -संसार से वे सर्वथा मुक्त और अलिप्त हैं, ऊपर उठे हुए हैं। पदेसनिव्वत्त-संठाणा-सिद्धों में जो आकार होता है, वह पौद्गलिक शरीर के कारण नहीं होता, क्योंकि शरीर का वहाँ सर्वथा अभाव है, अतः उनका संस्थान (आकार) आत्मप्रदेशों से ही निष्पन्न होता है। सव्वकालतित्ता-सर्वकाल यानी सादि-अनन्तकाल तक वे तृप्त हैं, क्योंकि औत्सुक्य से सर्वथा निवृत्त होने से वे परमसंतोष को प्राप्त हैं। अतुलं सासयं अव्वाबाहं णेव्वाणं सुहं पत्ता'—सिद्ध भगवान् अतुल-उपमातीत—अनन्यसदृश शाश्वत तथा अव्याबाध (किसी प्रकार की लेशमात्र भी बाधा न होने से) निर्वाण (मोक्ष) संबंधी-सुख को प्राप्त हैं। 'सिद्धत्ति यसित यानी बद्ध जो अष्टप्रकारके कर्म, उसे जिन्होंने ध्मात-भस्मीकृत कर दिया है, वे सिद्ध। सामान्यतया जो कर्म, शिल्प, विद्या, मंत्र, योग, आगम, अर्थ, यात्रा, अभिप्राय, तप और कर्मक्षय, इन सबसे सिद्ध होता है, उसे भी उस-उस विशेषणयुक्त कहते हैं, किन्तु यहाँ इन सबकी विवक्षा न करके एक 'कर्मक्षयसिद्ध' की विवक्षा की गई है। शेष सबको निरस्त करने हेतु 'बुद्ध' शब्द का प्रयोग किया गया है। बुद्ध का अर्थ है—अज्ञान-निद्रा में प्रसुप्त जगत् को स्वयं जिन्होंने तत्त्वबोध देकर जागृत किया है, सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी होने से उनका स्वभाव ही बोधरूप है। परोपदेश के बिना ही केवलज्ञान के द्वारा स्वतः वस्तुस्वरूप या जीवादितत्त्वों को जान लिया है। अर्हन्त भगवान् भी 'बुद्ध' होते हैं, इसलिए विशेषण दिया है—पारगता—जो संसार से या समस्त प्रयोजनों से पार हो चुके हैं। अतएव कृतकृत्य हैं। अक्रमसिद्धों का निराकरण करने के लिए यहाँ कहा गया है-'परंपरगता'—जो परम्परागत हैं। अर्थात्-जो ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप परम्परा से अथवा मिथ्यात्व से लेकर यथासंभव चतुर्थ, षष्ठ, आदि गुणस्थानों को पार करके सिद्ध हुए हैं। अमरा—आयुकर्म से सर्वथा रहित होने से वे अजर-अमर हैं। देह के अभाव में जन्म, जरा, मरण आदि के बन्धनों से विमुक्त हैं। जन्मजरामरणादि ही दुःख रूप हैं
और सिद्ध इन सब दुःखों से पार हो चुके हैं। इसलिए कहा गया है—'णित्थिन्नसव्वदुक्खा-जातिजरा-मरणबंधणो-विमुक्का'। सिद्धों के 'असरीरा, णेव्वाणमुवगया, उम्मुक्कक म्मकवचा, सव्वकालतित्ता' आदि विशेषण प्रसिद्ध हैं, इनके अर्थ भी स्पष्ट हैं। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक १०८ से ११२ तक २. (क) सितं बद्धं अष्टप्रकारं कर्मध्यातं भस्मीकृतं यैस्ते सिद्धाः। (ख) 'कम्मे सिप्पे य विज्जाए, मंते जोगे य आगमे।
अत्थजत्ताभिप्पाए, तवे कम्मक्खए इ य॥'