________________
द्वितीय स्थानपद]
[२०७ ___ इसी प्रकार सिद्धों का सुख अनुपम है। उसकी कोई उपमा नहीं है। फिर भी कुछ विशेष रूप से इसकी उपमा (सदृशता) बताऊँगा, इसे सुनो॥ १७५ ॥ ____ जैसे कोई पुरुष सर्वकामगुणित भोजन का उपभोग करके प्यास और भूख से विमुक्त होकर ऐसा हो जाता है, जैसे कोई अमृत से तृप्त हो। वैसे ही सर्वकाल में तृप्त अतुल (अनुपम), शाश्वत एवं अव्याबाध निर्वाण-सुख को प्राप्त सिद्ध भगवान् (सदैव) सुखी रहते हैं ॥ १७६-१७७॥ ____ वे मुक्त जीव सिद्ध हैं, बुद्ध हैं, पारगत हैं, परम्परागत हैं, कर्मरूपी कवच से उन्मुक्त हैं, अजर, अमर और असंग हैं। उन्होंने सर्वदुःखों को पार कर दिया है। वे जन्म, जरा, मरण के बन्धन से सर्वथा मुक्त, सिद्ध (होकर) अव्याबाध एवं शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं ॥ १७८-१७९ ॥ __विवेचन–सिद्धों के स्थान आदि का निरूपण-प्रस्तुत गाथाबहुल सूत्र (सू. २११) में शास्त्रकार ने सिद्धों के स्थान, उसकी विशेषता, उसके पर्यायवाचक नाम, सिद्धों के गुण, अवगाहना सुख तथा उनकी विशेषता आदि का निरूपण किया है।
ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के अन्वर्थक पर्यायवाची नाम–(१) संक्षेप में कहने के लिए 'इषत्' नाम है। (२) थोड़ी-सी आगे को झुकी हुई होने से ईषत्प्राग्भारा है। (३) शेष पृथ्वियों की अपेक्षा पतली होने से 'तनु' नाम है। (४) जगत् प्रसिद्ध पतली मक्खी की पांख से भी पतली होने से इसका 'तनुतन्वी' नाम है। (५) सिद्ध क्षेत्र के निकट होने से इसका नाम 'सिद्धि' है, (६) सिद्ध क्षेत्र के निकट होने से उपचार से इसका नाम 'सिद्धालय' भी है। (७-८) इसी प्रकार 'मुक्ति' और 'मुक्तालय' नाम भी सार्थक हैं। (९) लोक के अग्रभाग में स्थित होने से 'लोकाग्र' नाम है। (१०) लोकाग्र की स्तूपिकासमान होने से इसका नाम 'लोकाग्रस्तूपिका' भी है। (११) लोक के अग्रभाग में होने से उसके आगे जाना रुक जाता है, इसलिए एक नाम 'लोकाग्र-प्रतिवाहिनी' भी है। (१२) समस्त प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के लिए निरुपद्रवकारी भूमि होने से 'सर्व प्राण-भूत-जीव-सत्त्वसुखावहा' नाम भी सार्थक
सिद्धों के कुछ विशेषणों की व्याख्या—'सादीया अपज्जवसिता'- सादि-अपर्यवसित-अनन्त । प्रत्येक सिद्ध सर्वकर्मों का सर्वथा क्षय होने पर ही सिद्ध-अवस्था प्राप्त करता है। इस कारण से सिद्ध सादि (आदि युक्त) हैं, किन्तु सिद्धत्व प्राप्त कर लेने कर कभी उसका अन्त नहीं होता, इस कारण उन्हें अपर्यवसित—'अनन्त' कहा है। इस विशेषण के द्वारा 'अनादिशुद्ध' पुरुष की मान्यता का निराकरण किया गया है। सिद्धों के रागद्वेषादि विकारों का समूल विनाश हो जाने के कारण उनका सिद्धत्वदशा से प्रतिपात नहीं होता, क्योंकि पतन के कारण रागादि हैं, जो उनके सर्वथा निर्मूल हो चुके हैं। जैसे बीज के जल जाने पर उससे अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती, वैसे ही संसारबीज—रागद्वेषादि के विनष्ट हो जाने से पुनः संसार में आना और जन्ममरण पाना नहीं होता। इसीलिए उन्हें 'अणेगजाति-जरा-मरण१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक १०७