________________
२०६]
[प्रज्ञापना सूत्र और एक धनुष के तीसरे भाग जितनी अवगाहना होती है। यह सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना कही गई है ॥ १६३॥
(पूर्ण) चार रनि (मुण्ड हाथ) और त्रिभागन्यून एक रत्नि, यह सिद्धों की मध्यम अवगाहना कही है, ऐसा समझना चाहिए ॥ १६४॥
एक (पूर्ण) रत्नि और आठ अंगुल अधिक जो अवगाहना होती है, यह सिद्धों की जघन्य अवगाहना कही है ॥ १६५॥ . (अन्तिम) भव (चरम शरीर) से त्रिभाग हीन (कम) सिद्धों की अवगाहना होती है। जरा और मरण से सर्वथा विमुक्त सिद्धों का संस्थान (आकार) अनित्थंस्थ होता है। अर्थात् 'ऐसा है' यह नहीं कहा जा सकता ॥ १६६॥
जहाँ (जिस प्रदेश में) एक सिद्ध है, वहाँ भवक्षय के कारण विमुक्त अनन्त सिद्ध रहते हैं। वे सब लोक के अन्त भाग (सिरे) से स्पृष्ट एवं परस्पर समवगाढ़ (पूर्णरूप से एक दूसरे में समाविष्ट) होते हैं ॥ १६७॥
एक सिद्ध सर्वप्रदेशों से नियमतः अनन्तसिद्धों को स्पर्श करता (स्पृष्ट हो कर रहता) है। तथा जो देश-प्रदेशों से स्पृष्ट (होकर रहे हुए) हैं, वे सिद्ध तो (उनसे भी) असंख्यातगुणा अधिक हैं ॥ १६८॥
सिद्ध भगवान् अशरीरी हैं, जीवघन (सघन आत्मप्रदेश वाले) हैं तथा ज्ञान और दर्शन में उपयुक्त (सदैव उपयोगयुक्त) रहते हैं; (क्योंकि) साकार (ज्ञान) और अनाकार (दर्शन) उपयोग होना, यही सिद्धों का लक्षण है ॥ १६९॥ ___ केवलज्ञान से (सदैव) उपयुक्त (उपयोगयुक्त) होने से वे समस्त पदार्थों को, उनके समस्त गुणों और पर्यायों को जानते हैं तथा अनन्त केवलदर्शन से सर्वतः [समस्त-पदार्थों को सर्वप्रकार से) देखते हैं ॥ १७० ॥
अव्याबाध को प्राप्त (उपगत) सिद्धों को जो सुख होता है, वह न तो (चक्रवर्ती आदि) मनुष्यों को होता है, और न ही (सर्वार्थसिद्धपर्यन्त) समस्त देवों को होता है॥ १७१॥
देवगण के समस्त सुख को सर्वकाल के साथ पिण्डित (एकत्रित या संयुक्त) किया जाय, फिर उसको अनन्त गुणा किया जाय तथा अनन्त वर्गों से वर्गित किया जाए तो भी वह मुक्ति-सुख को नहीं पा सकता (उसकी बराबरी नहीं कर सकता) ॥ १७२॥ ___एक सिद्ध के (प्रतिसमय के) सुखों की राशि, यदि सर्वकाल से पिण्डित (एकत्रित) की जाए,
और उसे अनन्तवर्गमूलों से भाग दिया (कम किया) जाए, तो वह (भाजित = न्यूनकृत) सुख भी (इतना अधिक होगा कि) सम्पूर्ण आकाश में नहीं समाएगा॥ १७३ ॥ ___ जैसे कोई म्लेच्छ( आरण्यक अनार्य) अनेक प्रकार के नगर-गुणों को जानता हुआ भी उसके सामने कोई उपमा न होने से कहने में समर्थ नहीं होता॥ १७४ ।।