SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१०] [प्रज्ञापना सूत्र जो सिद्धि कही गई है, वह तीर्थंकर की अपेक्षा से समझनी चाहिए। सामान्य केवली तो इससे कम अवगाहना वाले भी सिद्ध होते हैं। ऊपर जो अवगाहना बताई गई है, वह सामान्य की अपेक्षा से ही है, तीर्थंकरों की अपेक्षा से नहीं। सिद्धों की जघन्य अवगाहना एक हाथ और आठ अंगुल की है। यह जघन्य अवगाहना कूर्मापुत्र आदि की समझनी चाहिए, जिनके शरीर की अवगाहना दो हाथ की होती है। __ भाष्यकार ने कहा है—'उत्कृष्ट अवगाहना ५०० धनुष वालों की अपेक्षा से, मध्यम अवगाहना ७ हाथ के शरीर वालों की अपेक्षा से और जघन्य अवगाहना दो हाथ के शरीर वालों की अपेक्षा से कही गई है,जो उनके शरीर से त्रिभागन्यून होती है। सिद्धों का संस्थान अनियत—जरामरणरहित सिद्धों का आकार (संस्थान) अनित्थंस्थ होता है.। जिस आकार को इस प्रकार का है, ऐसा न कहा जा सके, वह अनित्थंस्थ—यानी अनिर्देश्य कहलाता है। मुख एवं उदर आदि के छिद्रों के भर जाने से सिद्धों के शरीर का पहले वाला आकार बदल जाता है, इस कारण सिद्धों का संस्थान अनित्थंस्थ कहलाता है, यही भाष्यकार ने कहा है। आगम में जो यह कहा गया है कि 'सिद्धात्मा न दीर्घ हैं, न ह्रस्व हैं' आदि कथन भी संगत हो जाता है। अतः सिद्धों के संस्थान की अनियतता पूर्वाकार की अपेक्षा से है, आकार का अभाव होने के कारण नहीं। क्योंकि सिद्धों में संस्थान का एकान्ततः अभाव नहीं है। सिद्धों का अवस्थान–जहाँ एक सिद्ध अवस्थित है, वहाँ अनन्त सिद्ध अवस्थित होते हैं। वे परस्पर अवगाढ़ होकर रहते हैं, क्योंकि अमूर्त्तिक होने से सिद्धों को परस्पर एक दूसरे में समाविष्ट होने में कोई बाधा नहीं पड़ती। जैसे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एक दूसरे में मिले हुए लोक में अवस्थित हैं, इसी प्रकार अनन्त सिद्ध एक ही परिपूर्ण अवगाहनक्षेत्र में परस्पर मिलकर लोक १. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक १०८ से ११० तक (ख) कहं मरुदेवामाणं? नाभीतो जेण किंचिदूणा सा। तो किर पंचसयच्चिय अहवा संकोचओ सिद्धा॥ भाष्यकार (ग) जेट्ठा उ पंचधणुसय-तणुस्स, मज्झा य सत्तहत्थस्स। देहत्तिभागहीणा जहनिया जा बिहत्थस्स॥ १॥ सत्तूसियं एसु सिद्धी जहन्नओ कहमिहं बिहत्थेसु ? सा किर तित्थयरेसु, सेयाणं सिण्झमाणाणं ॥२॥ ते पुण होज बिहत्था कुम्मापुत्तादयो जहन्नेणं। अन्ने संवट्टिय सत्तहत्थ सिद्धस्स हीणत्ति॥ ३॥ भाष्यकार (घ) सुसिरपरिपूरणाओ पुव्वागारनहाववत्थाओ। संठाणमणित्थंत्थं जं भणिय मणिययागारं । एतोच्चिय पडिस्सेही सिद्धाइगुणेसु दीहयाईणं। जमणित्थंथं पुव्वागाराविक्खाए नाभावो॥ २ ॥ दीहं वा हस्से वा। -भाष्य
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy