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________________ द्वितीय स्थानपद] [१९७ [२०६-१ उ.] गौतम! आनत-प्राणत कल्पों के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा में, यहाँ आरण और अच्युत नाम के दो कल्प कहे गए हैं, जो पूर्व-पश्चिम में लम्बे और उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण हैं, अर्द्धचन्द्र के आकार में संस्थित और अर्चिमाली (सूर्य) की तेजोराशि के समान प्रभा वाले हैं। उनकी लम्बाई-चौड़ाई असंख्यात कोटा-कोटी योजन तथा परिधि भी संख्यात कोटा-कोटी योजन की है। वे विमान पूर्णतः रत्नमय, स्वच्छ, स्निग्ध, कोमल, घिसे हुए तथा चिकने किए हुए, रज से रहित, निर्मल, निष्पंक, निरावरण कान्ति से युक्त, प्रभामय, श्रीसम्पन्न, उद्योतमय, प्रसन्नता-उत्पादक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप (अतीव सुन्दर) हैं। उन विमानों के ठीक मध्यप्रदेशभाग में पांच अवतंसक कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-१. अंकावतंसक, २. स्फटिकावतंसक, ३. रत्नावतंसक, ४. जातरूपावतंसक और इन चारों के मध्य में, ५. अच्युतावतंसक है। ये अवतंसक सर्वरत्नमय हैं, (तथा सू. २०६-१ में कहे अनुसार) यावत् प्रतिरूप हैं। इनमें आरण और अच्युत देवों के पर्याप्तकों एवं अपर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं। (ये स्थान) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। इनमें बहुत-से आरण और अच्युत देव यावत् (सू. १९६ के वर्णन के अनुसार) विचरण करते हैं। [२] अच्चुते यऽत्थ देविंदे देवराया परिवसति जहा पाणए (सु. २०५ [२]) जाव विहरति। णवरं तिण्हं विमाणावाससताणं दसण्हं सामाणियसाहस्सीणं चत्तालीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीणं आहेवच्चं कुव्वमाणे जाव (सु. १९६) विहरति। बत्तीस अट्टवीसा बारस अट्र चउरो सतसहस्सा। पण्णा चत्तालीसा छ च्च सहस्सा सहस्सारे॥१५४॥ आणय-पाणयकप्पे चत्तारि सयाऽऽरण-ऽच्चुए तिन्नि। सत्त विमाणसयाई चउसु वि एएसु कप्पेसु ॥ १५५॥ सामाणियसंगहणीगाहा चउरासीइ १ असीई २ बावत्तरि ३ सत्तरी य ३ सट्ठी य ५। पण्णा ६ चत्तालीसा ७ तीसा ८ वीसा ९-१० दस सहस्सा ११-१२॥ १५६॥ एते चेव आयरक्खा चउगुणा। [२०६-२] यहीं अच्युतावतंसक में देवेन्द्र देवराज अच्युत निवास करता है। इसका सारा वर्णन (सू. २०५-२ में अंकित) प्राणत की तरह, यावत् विचरण करता है, तक कहना चाहिए। विशेष यह है कि अच्युतेन्द्र तीन सौ विमानावासों का, दस हजार सामानिक देवों का तथा चालीस हजार आत्मरक्षक देवों का आधिपत्य करता हुआ यावत् विचरण करता है। (द्वादश कल्प-विमानसंख्या-संग्रहणीगाथाओं का अर्थ क्रमशः) १. बत्तीस लाख, २. अट्ठाईस लाख, २. बारह लाख, ४. आठ लाख, ५. चार लाख, ६. पचास हजार, ७. चालीस हजार, ८. सहस्रारकल्प में छह हजार, ९-१०. आनत-प्राणत कल्पों में चार सौ, तथा ११-१२ आरण-अच्युत कल्पों में तीन सौ
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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