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________________ १९८] विमान होते हैं । अन्तिम इन चार कल्पों में (कुल मिलाकर ४०० + ३०० I हैं॥ १५४-१५५ ॥ [ प्रज्ञापना सूत्र = ७००) सात सौ विमान होते (द्वादशकल्प) सामानिक (संख्या) — संग्रहणीगाथा ( का अर्थ — ) १. चौरासी हजार, २. अस्सी हजार, ३. बहत्तर हजार ४. सत्तर हजार, ५. साठ हजार, ६. पचास हजार, ७. ( महाशुक्र में ) चालीस हजार, ८. (सहस्रार में) तीस हजार, ९ - १०. बीस हजार, ११-१२ ( आरण - अच्युत में) दस हजार ( क्रमश: हैं) । ॥ १५६॥ इन्हीं बारह कल्पों के आत्मरक्षक इन ( सामानिकों) से (क्रमश:) चार-चार गुने हैं । २०७. कहि णं भंते! हेट्ठिमगेवेज्जगदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! हेट्ठिमवेज्जगा देवा परिवसंति ? गोयमा! आरणच्चुताणं कप्पाणं उप्पिं जाव (सु. २०६ [१] उड्ढं दूरं उप्पाइत्ता एत्थ णं हेट्ठिमगेवेज्जगाणं देवाणं तओ गेवेज्जगविमाणपत्थडा पण्णत्ता पाईण-पडीणायया उदीणदाहिणवित्थिण्णा पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिता अच्चिमाली -भासरासिवण्णाभा सेसं जहा बंभलोग जाव (सु. २०१ [ १ ] ) पडिरूवा । तत्थं णं हेट्ठिमगेवेज्जगाणं देवाणं एक्कारसुत्तरे विमाणावाससते हवंतीति मक्खातं । ते णं विमाणा सव्वरयणामया जाव (सु. २०६ [१] ) पडिरूवा । एत्थ णं मवेज्जगाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता । तिसु वि लोगस्स असंखिज्जइ - भागे । तत्थ णं बहवे हेट्ठिमगेवेज्जगा देवा परिवसंति सव्वे समिड्ढया सव्वे समज्जतीया सव्वे समज़सा सव्वे समबला सव्वे समाणुभावा महोसोक्खा अणिंदा अप्पेस्सा अपुरोहिया अहमिंदा णामं ते देवगणा पण्णत्ता समगाउसो ! । [२०७ प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त अधस्तन ग्रैवेयक देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन्! अधस्तन ग्रैवेयक देव कहाँ निवास करते हैं ? [२०७ उ.] गौतम! आरण और अच्युत कल्पों के ऊपर यावत् (सू. २०६ - १ के अनुसार) ऊपर दूर जाने पर अधस्तन-ग्रैवेयक देवों के तीन ग्रैवेयक- विमान - प्रस्तट कहे गए हैं; जो पूर्व-पश्चिम में लम्बे और उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण हैं । वे परिपूर्ण चन्द्रमा के आकार में संस्थित हैं, सूर्य की तेजोराशि के वर्ण की-सी प्रभा वाले हैं, शेष वर्णन (सू. २०१ - १ में अंकित) ब्रह्मलोक-कल्प के समान यावत् 'प्रतिरूप हैं' तक (समझना चाहिए)। उनमें अधस्तन ग्रैवेयक देवों के एक सौ ग्यारह विमान हैं, ऐसा कहा गया है। वे विमान पूर्णरूप से रत्नमय हैं, ( इत्यादि सब वर्णन) यावत् 'प्रतिरूप हैं' तक (सू. २०६ - १ के अनुसार समझना चाहिए ) । यहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक अधस्तन-ग्रैवेयक देवों के स्थान कहे गए हैं। (ये स्थान) तीनों (पूर्वोक्त) अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । उनमें बहुतसे अधस्तन-ग्रैवेयक देव निवास करते हैं, वे सब समान ऋद्धि वाले, सभी समान द्युति वाले, सभी समान यशस्वी, सभी समान बली, सब समान अनुभाव ( प्रभाव) वाले, महासुखी, इन्द्ररहित, प्रेष्य (दास) रहित, पुरोहितहीन हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे देवगण 'अहमिन्द्र' नाम से कहे गए हैं ।
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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