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________________ १९६] [प्रज्ञापना सूत्र इन (चारों) के बीच में (पांचवां) प्राणतावतंसक है। वे अवतंसक पूर्णरूप से रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, (बीच का वर्णन सू. १९६ के अनुसार) यावत् 'प्रतिरूप हैं' तक कहना चाहिए। इन (अवतंसकों) में पर्याप्त-अपर्याप्त आनत-प्राणत देवों के स्थान कहे गए हैं। ये स्थान तीनों अपेक्षाओं से, लोक के असंख्यातवें भाग में हैं; जहाँ बहुत-से आनत-प्राणत देव निवास करते हैं, जो महर्द्धिक हैं, यावत् (बीच का पाठ सू. १९६ के अनुसार) 'प्रभासित करते हुए' तक समझ लेना चाहिए। वे (आनत-प्राणत देव) वहाँ अपने-अपने सैकड़ों विमानों का यावत् आधिपत्य करते हुए विचरते हैं। [२] पाणए यऽत्थ देविंदे देवराया परिवसति जहा सणंकुमारे (सु. १९९ [२]), णवरं चउण्हं विमाणावाससयाणं वीसाए सामाणियसाहस्सीणं असीतीए आयरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसिं च बहूणं जाव (सु. १९६) विहरति। [२०५-२] यही देवेन्द्र देवराज प्राणत निवास करता है, जिस प्रकार (सू. १९९-२ में) सनत्कुमारेन्द्र का वर्णन है, (तदनुसार यहाँ भी प्राणतेन्द्र का समझना चाहिए।) विशेष यह है कि (यह प्राणतेन्द्र) चार सौ विमानावासों का, बीस हजार सामानिक देवों का तथा अस्सी हजार आत्मरक्षकदेवों का एवं अन्य बहुत-से देवों का अधिपतित्व करता यावत् 'विचरण करता है' तक (का वर्णन सू. १९६ के अनुसार समझना चाहिए)। __२०६. [१] कहि णं भंते! आरण-ऽच्चुताणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! आरण-उच्चुता देवा परिवसंति ? गोयमा! आणय-पाणयाणं कप्पाणं उप्पिं सपक्खि सपडिदिसिं एत्थ णं आरणऽच्चुया णामं दुवे कप्या पण्णत्ता, पाईण-पडीणायया उदीण-दाहिणवित्थिण्णा अद्धचंदसंठाणसंठिता अच्चिमाली-भासरासिवण्णप्पभा असंखेन्जाओं जोयणकोडाकोडीओ आयाम विक्खंभेणं असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं सव्वरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निक्कंकडच्छाया सप्पभा सस्सिरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा, एत्थ णं आरण-ऽच्चुताणं देवाणं तिन्नि विमाणावाससता हवंतीति मक्खायं। तेणं विमाणा सव्वरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निक्कंकडच्छाया सप्पभा सस्सिरीया सउज्जोता पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। तेसि णं विमाणाणं बहुमज्झदेसभाए पंच वडेंसगा पण्णत्ता, तं जहा अंकवडेंसए १ फलिहवडेंसए २ रयणवडेंसए ३ जायरूववडेंसए ४ मझे यऽत्थ अच्चुतवडेंसए ५। ते णं वडेंसया सव्वरयणामया जाव (सु. २०६ [१]) पडिरूवा। एत्थ णं आरणऽच्चुयाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखेन्जइभागे। तत्थ णं बहवे आरणऽच्चुता देवा जाव (सु. १९६) विहरंति। ___[२०६-१ प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक आरण और अच्युत देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! आरण और अच्युत देव कहाँ निवास करते हैं ?
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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