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द्वितीय स्थानपद]
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अनुसार) जानना चाहिए। विशेष यह है कि इन (चारों) के बीच में (पांचवां ) सहस्रारावतंसक' समझना चाहिए। (इससे आगे) यावत् 'विचरण करते हैं' तक का भी वर्णन (सू. १९६ के अनुसार) जान लेना चाहिए।
[२] सहस्सारे यऽत्थ देविंदे देवराया परिवसति जहा सणंकुमारे (सु. १९९ [२]), णवरं छण्हं विमाणावाससहस्साणं तीसाए सामाणियसाहस्सीणं चउण्ह य तीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीणं जाव (सु. १९६ ) आहेवच्चं कारेमाणे विहरति।
[२०४-२] इसी स्थान पर देवेन्द्र देवराज सहस्रार निवास करता है। (उसका वर्णन) जैसे (१९२२ में) सनत्कुमारेन्द्र का है, उसी प्रकार का वर्णन (समझना चाहिए)। विशेष यह है कि (सहस्रारेन्द्र) छह हजार विमानावासों का, तीस हजार सामानिक देवों का और चार तीस हजार, अर्थात्—एक लाख बीस हजार आत्मरक्षक देवों का यावत् (सू. १९६ के अनुसार बीच का वर्णन) आधिपत्य करता हुआ विचरण करता है। ___ २०५. [१] कहि णं भंते! आणय-पाणयाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! आणय-पाणय देवा परिवसंति ? ___ गोयमा! सहस्सारस्स कप्पस्स उप्पिं सपक्खि सपडिदिसिं जाव (सु. १९९ [१]), उप्पइत्ता एत्थ णं आणय-पाणयनामेणं दुवे कप्पा पण्णत्ता पाईण-पडीणायता उदीण-दाहिणवित्थिण्णा अद्धचंद-संठाणसंठिता अच्चिमाली-भासरासिप्पभा, सेसं जहा सणंकुमारे (सु. १९९ [१]) जाव पडिरूवा। तत्थ णं आणय-पाणयदेवाणं चत्तारि विमाणावाससता भवंतीति मक्खायं जाव पडिरूवा। वडिंसगा जहा सोहम्मे (सु. १९७ [१]), णवरं मज्झे पाणयवडेंसए। ते णं वडेंसगा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा (सु. १९६)। एत्थ णं आणय-पाणयदेवाणं पज्जत्ताऽज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे। तत्थ णं बहवे आणय-पाणयदेवा परिवसंति महिड्ढीया जाव (सु. १९६) पभासेमाणा। ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावाससयाणं जाव (सु. १९६) विहरंति।
[२०५-१ प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक आनत एवं प्राणत देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! आनत-प्राणत देव कहाँ निवास करते हैं ?
[२०५-१ उ.] गौतम! सहस्रार कल्प के ऊपर समान दिशा और विदिशा में, (इत्यादि सू. १९९१ के अनुसार) यावत् ऊपर दूर जा कर, यहाँ आनत एवं प्राणत नाम के दो कल्प कहे गए हैं; जो पूर्वपश्चिम में लम्बे और उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण, अर्द्धचन्द्र के आकार में संस्थित, ज्योतिमाला और दीप्तिराशि की प्रभा के समान हैं, शेष सब वर्णन (सू. १९९-१ में उक्त) सनत्कुमारकल्प के वर्णन की तरह यावत् प्रतिरूप हैं, तक (समझना चाहिए।) उन कल्पों में आनत और प्राणत देवों के चार सौ विमानावास हैं, ऐसा कहा है; विमानावासों का वर्णन यावत् प्रतिरूप हैं, तक पूर्ववत् कहना चाहिए। जिस प्रकार सौधर्मकल्प के अवतंसक सू. १९७-१ में कहे हैं, इसी प्रकार इनके अवतंसक कहने चाहिए। विशेष यह है कि