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________________ १९२] [प्रज्ञापना सूत्र २०१. [१] कहि णं भंते! बंभलोगदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! बंभलोगदेवा परिवसंति? गोयमा! सणंकुमार-माहिंदाणं कप्पाणं उप्पिं सपक्खि सपडिदिसिं बहूई जोयणाइं जाव' (सु. १९९ [१]) उप्पइत्ता एत्थ णं बंभलोए णामं कप्पे पाईण-पडीणायए उदीणदाहिणवित्थिपणे पडिपुन्नचंदसंठाणसंठिते अच्चिमाली-भासरासिप्पभे अवसेसं जहा सणंकुमाराणं (सु १९९ [१]), णवरं चत्तारि विमाणावाससतसहस्सा। वडिंसगा जहा सोहम्मवडेंसया (सु. १९७ [१]), णवरं मझे यऽत्थ बंभलोयवडिंसए। एत्थ णं बंभलोगाणं देवाणं ठाणा पन्नत्ता। सेसं तहेव जाव (सु. १९६) विहरंति। [२०१-१ प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त ब्रह्मलोक देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं? भगवन् ! ब्रह्मलोक देव कहाँ निवास करते हैं? [२०१-१ उ.] गौतम! सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पों के ऊपर समान पक्ष (पार्श्व या दिशा) और समान विदिशा में बहुत योजन यावत् ऊपर दूर जाने पर, वहाँ ब्रह्मलोक नामक कल्प है, जो पूर्व-पश्चिम में लम्बा और उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण, परिपूर्ण चन्द्रमा के आकार का, ज्योति-माला तथा दीप्तिराशि की प्रभा वाला है। शेष वर्णन, सनत्कुमारकल्प की तरह (सू. १९९-१ के अनुसार) समझना चाहिए। विशेष यह है कि (इस कल्प में) चार लाख विमानावास हैं। इनके अवतंसक (सू. १९७-१ में कथित) सौधर्मअवतंसकों के समान समझने चाहिए। विशेष यह है कि इन (चारों अवतंसकों) के मध्य में ब्रह्मलोक अवतंसक है; जहाँ कि ब्रह्मलोक देवों के स्थान कहे गए हैं। शेष वर्णन उसी प्रकार (सू. १९६ में कथित वर्णन के अनुसार) यावत् 'विचरण करते हैं', तक समझना चाहिए। [२] बंभे यऽत्थ देविंदे देवराया परिवसति अरयंबरवत्थधरे, एवं जहा सणंकुमारे (सु. १९९ [२]) जाव विहरति। णवरं चउण्हं विमाणावाससतसहस्साणं सट्ठीए सामाणियसाहस्सीणं चउण्ह य सट्ठीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसिं च बहूणं जाव (सु. १९६) विहरंति। [२०१-२] ब्रह्मलोकावतंसक में देवेन्द्र देवराज ब्रह्म निवास करता है; जो रज-रहित स्वच्छ वस्त्रों का धारक है, इस प्रकार जैसे (सू. १९९-२ में) सनत्कुमारेन्द्र का वर्णन है, वैसे ही यहाँ यावत् 'विचरण करता है', तक कहना चाहिए। विशेष यह है कि (यह ब्रह्मेन्द्र) चार लाख विमानावासों का, साठ हजार सामानिकों का, चार साठ हजार अर्थात्-दो लाख चालीस हजार आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से ब्रह्मलोककल्प के देवों का आधिपत्य करता हुआ (इत्यादि शेष वर्णन सू. १९६ के अनुसार) यावत् 'विचरण करता है' तक (समझना चाहिए)। ___२०२. [१] कहि णं भंते! लंतगदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! लंतगदेवा परिवसंति ? ___ गोयमा! बंभलोगस्स कप्पस्स उप्पिं सपक्खि सपडिदिसिं बहूई जोयणसयाई जाव (सु. १९९ १. 'जाव' और 'जहा' शब्द से तत्स्थानीय सारा बीच का पाठ ग्राह्य है।
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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