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________________ द्वितीय स्थानपद] [१९३ [१]) बहुगीओ जोयणकोडाकोडीओ उड़े दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं लंतए णामं कप्पे पण्णत्ते पाईणपडीणायए जहा बंभलोए (सु. २०१[१]), णवरं पण्णासं विमाणावाससहस्सा भवंतीति मक्खायं। वडेंसगा जहा ईसाणवडेंसगा (सु. १९८ [१]), णवरं मझे यऽत्थ लंतगवडेंसए। देवा तहेव जाव (सु. १९६) विहरंति। _ [२०२-१ प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त लान्तक देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! लान्तक देव कहाँ निवास करते हैं ? [२०२-१ उ.] गौतम! ब्रह्मलोक कल्प के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा में अनेक सौ योजन यावत् बहुत कोटाकोटी योजन ऊपर दूर जाने पर, लान्तक नामक कल्प कहा गया है, जो पूर्वपश्चिम में लम्बा है; (इत्यादि सब वर्णन) जैसे (सू. २०१-१ में) ब्रह्मलोक (कल्प) का (किया गया) है, (उसी तरह यहाँ भी करना चाहिए।) विशेष यह है कि (इस कल्प में) पचास हजार विमानावास हैं, (इनके) अवंतसक ईशानावतंसक (सू. १९८-१ में उक्त) के समान समझने चाहिए। विशेष यह है कि इन (चारों) के मध्य में (पांचवां) लान्तक अवतंसक है। (सू. १९६ में) (जिस प्रकार सामान्य वैमानिक देवों का वर्णन है,) उसी प्रकार (लान्तक) देवों का भी यावत् 'विचरण करते हैं', तक (वर्णन समझना चाहिए)। [२] लंतए यऽत्थ देविंदे देवराया परिवसति जहा सणंकुमारे। (सु. १९९ [२]) णवरं पण्णासाए विमाणावाससहस्साणं पण्णासाए सामाणियसाहस्सीणं चउण्ह य पण्णासाणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसिं च बहूणं जाव (सु. १९६) विहरति। [२०२-२] इस लान्तक अवतंसक में देवेन्द्र देवराज लान्तक निवास करता है, (इसका समग्र वर्णन) (सू. १९९-२ में अंकित) सनत्कुमारेन्द्र की तरह (समझना चाहिए)। विशेष यह है कि (लान्तकेन्द्र) पचास हजार विमानावासों का, पचास हजार सामानिकों का, चार पचास हजार अर्थात् —दो लाख आत्मरक्षक देवों का, तथा बहुत-से लान्तक देवों का आधिपत्य करता हुआ इत्यादि (शेष समग्र वर्णन सू. १९६ के अनुसार) यावत् ‘विचरण करता है' तक (समझ लेना चाहिए)। २०३. [१] कहि णं भंते! महासुक्काणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! महासुक्का देवा परिवसंति ? ___गोयमा! लंतयस्स कप्पस्स उप्पिं सपक्खि सपडिदिसिं जाव (सु. १९९ [१]) उप्पइत्ता एत्थ णं महासुक्के णामं कप्पे पण्णत्ते-पायीण-पडीणायए उदीण-दाहिणवित्थिपणे जहा बंभलोए णवरं चत्तालीसं विमाणावाससहस्सा भवंतीति मक्खातं । वडेंसगा जहा सोहम्मवडेंसगा (सु. १९७ [१]), णवरं मज्झे यऽत्थ महासुक्कवडेंसए जाव (सु. १९६) विहरंति। [२०३-१ प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक महाशुक्र देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन्! महाशुक्र देव कहाँ निवास करते हैं ?
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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