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________________ द्वितीय स्थानपद ] [१९१ [१९९-२] यहीं देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार निवास करता है, जो रज से रहित वस्त्रों का धारक है, (इत्यादि) शेष वर्णन जैसे (सू. १९७ - २ में) शक्र का कहा है, ( उसी प्रकार इसका समझना चाहिए)। वह (सनत्कुमारेन्द्र) बारह लाख विमानावासों का, बहत्तर हजार सामानिक देवों का, ( इत्यादि) शेष सब वर्णन (जैसे सू. १९७ -२ में) शक्रेन्द्र का किया गया है, इसी प्रकार ( यहाँ भी) 'अग्रमहिषियों को छोड़कर' (करना चाहिए)। विशेषता यह कि चार बहत्तर हजार, अर्थात् — दो लाख अठासी हजार आत्मरक्षक देवों का यावत् 'विचरण करता है।' (यह कहना चाहिए ) । २००. [१] कहि णं भंते! माहिंदाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! माहिंदगदेवा परिवसंति ? गोयमा ! ईसाणस्स कप्पस्स उप्पिं सपक्खि सपडिदिसिं बहूइं जोयणाई जाव (सु. १९९ [ १ ]) बहुगीओ जोयणकोडाकोडीओ उड्ढं दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं माहिंदे णामं कप्पे पायीण - पडीणायए एवं जहेव सणकुमारे (सु. १९९ [१]), णवरं अट्ठ विमाणावाससतसहस्सा । वडेंसया जहा ईसाणे (सु. १९८ [ १ ] ), णवरं मज्झे यत्थ माहिंदवडेंसए। एवं सेसं जहा सणंकुमारगदेवाणं (सु. १९६ ) जाव विहरंति । [२०० - १ प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक माहेन्द्र देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! माहेन्द्र देव कहाँ निवास करते हैं ? [२०० - १ उ.] गौतम ! ईशानकल्प के ऊपर समान पक्ष (पार्श्व या दिशा) और समान विदिशा में बहुत योजन, यावत्—(सू. १९९ - १ के अनुसार) बहुत कोड़ाकोड़ी योजन ऊपर दूर जाने पर वहाँ माहेन्द्र नामक कल्प कहा गया है, पूर्व-पश्चिम में लम्बा इत्यादि वर्णन जैसे (सू. १९९-१ में) सनत्कुमारकल्प का किया गया है, वैसे इसका भी समझना चाहिए । विशेष यह है कि इस कल्प में विमान आठ लाख हैं। इनके अवतंसक (सू. १९८ - १ में प्रतिपादित ) ईशानकल्प के अवतंसकों के समान जानने चाहिए । विशेषता यह है कि इनके बीच में माहेन्द्र अवतंसक है। इस प्रकार शेष सब वर्णन (सू. १९६ में वर्णित ) सनत्कुमार देवों के समान, यावत् 'विचरण करते हैं', तक समझना चाहिए। 1 [२] माहिंदे यत्थ देविंदे देवराया परिवसति अरयंबरवत्थधरे, एवं जहा सणकुमारे (सु. १९९ [ २ ]) जाव विहरति । णवरं अट्ठण्हं विमाणावाससतसहस्साणं सत्तरीए सामाणियसाहस्सीणं चउण्हं सत्तरीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं जाव (सु. १९६ ) विहरइ । [२०० - २] यहीं देवेन्द्र देवराज माहेन्द्र निवास करता है; जो रज से रहित स्वच्छ— श्वेत वस्त्रधारक है, इस प्रकार (आगे का समस्त वर्णन सू. १९९ - २ में उक्त) सनत्कुमारेन्द्र के वर्णन की तरह यावत् 'विचरण करता है' तक समझना चाहिए । विशेष यह है कि माहेन्द्र आठ लाख विमानावासों का, सत्तर हजार सामानिक देवों का, चार सत्तर हजार अर्थात् — दो लाख अस्सी हजार आत्मरक्षक देवों का— (शेष सू. १९६ के अनुसार) यावत् 'विचरण करता है' (तक समझना चाहिए)।
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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