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द्वितीय स्थानपद]
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उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण है, इस प्रकार (शेष वर्णन) सौधर्म (कल्प के वर्णन) के समान (सू. १९७१ के अनुसार) यावत्-'प्रतिरूप है' तक समझना चाहिए।
उस (ईशानकल्प) में ईशान देवों के अट्ठाईस लाख विमानावास हैं। वे विमान सर्वरत्नमय यावत् (पूर्ववत्) प्रतिरूप हैं।
उन विमानावासों के ठीक मध्यदेशभाग में पांच अवतंसक कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-१अंकावतंसक, २-स्फटिकावतंसक, ३-रत्नावतंसक, ४-जातरूपावतंसक और इनके मध्य में ५ईशानावतंसक। वे (सब) अवतंसक पूर्णरूप से रत्नमय यावत् प्रतिरूप हैं, (यह सब वर्णन सू. १९६ के अनुसार जानना चाहिए)। ___ इन्हीं (अवतंसकों) में पर्याप्तक और अपर्याप्तक ईशान देवों के स्थान कहे गए हैं। (वे स्थान) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। शेष सब (वर्णन) सौधर्मक देवों के (सू. १९७१ में कथित) (वर्णन के) अनुसार यावत् विचरण करते हैं ('विहरंति') तक (समझना चाहिए)।
[२१] ईसाणे यऽत्थ देविंदे देवराया परिवसति सूलपाणी वसभावहणे उत्तरड्ढलोगाधिवती अट्ठावीसविमाणावाससतसहस्साधिवती अरयंबरवत्थधरे सेसं जहा सक्कस्स (सु. १९७ [२]) जाव पभासेमाणे।
से णं तत्थ अट्टावीसाए विमाणावाससतसहस्साणं असीतीए सामाणियसाहस्सीणं तायतीसाए तायत्तीसगाणं चउण्हं लोगपालाणं अट्ठण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्ह अणियाणं सत्तण्हं अणियाधिवतीणं चउण्हं असीतीणं आयरक्खेदेवसायस्सीणं अण्णेसिं च बहूणं ईसाणकप्पवासीणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं कुव्वमाणे जाव (१९६) विहरति।
[१९८-२] इस ईशानकल्प में देवेन्द्र देवराज ईशान निवास करता है, शूलपाणि, वृषभ-वाहन, उत्तरार्द्धलोकाधिपति, अट्ठाईस लाख विमानावासों का अधिपति, रजरहित स्वच्छ वस्त्रों का धारक है; शेष वर्णन (सू. १९७-२ में अंकित) शक्र के (वर्णन के) समान, यावत् 'प्रभासित करता हुआ' तक (समझना चाहिए)।
वह (ईशानेन्द्र) वहाँ अट्ठाईस लाख विमानावासों का, अस्सी हजार सामानिक देवों का, तेतीस त्रायस्त्रिंशक देवों का, चार लोकपालों का, आठ सपरिवार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपति देवों का, चार अस्सी हजार, अर्थात्—तीन लाख बीस हजार आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत-से ईशानकल्पवासी देवों और देवियों का आधिपत्य, अग्रेसरत्व करता हुआ, (आगे का सब वर्णन सू. १९६ के अनुसार) यावत् 'विचरण करता है' तक (पूर्ववत् समझना चाहिए)।
१९९. [१] कहि णं भंते! सणंकुमारदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! सणंकुमारा देवा परिवसंति ?