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द्वितीय स्थानपद] सौ योजन, अनेक हजार योजन, अनेक लाख योजन, बहुत करोड़ योजन और बहुत कोटाकोटी योजन ऊपर जाने पर सौधर्म नामक कल्प कहा गया है। वह पूर्व-पश्चिम में लम्बा, उत्तर दक्षिण में विस्तीर्ण, अर्द्ध चन्द्र के आकार में संस्थित, अर्चियों-ज्योतियों की माला तथा दीप्तियों की राशि के समान वर्णकान्ति वाला है। उसकी लम्बाई और चौड़ाई असंख्यात कोटि योजन ही नहीं, बल्कि असंख्यात कोटाकोटि योजन की है, तथा परिधि भी असंख्यात कोटाकोटि योजन की है। वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है, (इत्यादि सब वर्णन), यावत् 'प्रतिरूप है' तक सू. १९६ के अनुसार (समझना चाहिए।) उस (सौधर्मकल्प) में सौधर्म देवों के बत्तीस लाख विमानावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे विमान पूर्णरूप से रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, (इत्यादि सब वर्णन) सू. १९६ के अनुसार यावत् प्रतिरूप हैं, तक, समझना चाहिए।
इन विमानों के बिलकुल मध्यदेशभाग में (ठीक बीचों-बीच) पांच अवतंसक कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-१. अशोकावतंसक, २. सप्तपर्णावतंसक, ३. चंपकावतंसक, ४. चूतावतंसक और इन चारों के मध्य में ५-पांचवा सौधर्मावतंसक। ये अवतंसक रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् 'प्रतिरूप हैं ' तक सब वर्णन सू. १९६ के अनुसार समझ लेना चाहिए। इन्हीं (अवतंसकों) में पर्याप्त और अपर्याप्त सौधर्मक देवों के स्थान कहे गए हैं। (वे स्थान) तीनों (पूर्वोक्त) अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। उनमें बहुत से सौधर्मक देव निवास करते हैं, जो कि 'महर्द्धिक हैं' (इत्यादि शेष वर्णन यावत् प्रभासित करते हुए ('पभासेमाणा') तक (सू. १९६ के अनुसार) (पूर्ववत् कहना चाहिए।) वे वहाँ अपने-अपने लाखों विमानों का, अपने-अपने हजारों सामानिक देवों का, इस प्रकार जैसे औधिक (सामान्य) वैमानिकों के विषय में (सू. १९६) में कहा है, वैसे ही इनके विषय में भी कहना चाहिए। यावत् हजारों आत्मरक्षक देवों का, तथा अन्य बहुत-से सौधर्मकल्पवासी वैमानिक देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरोवर्त्तित्व इत्यादि यावत् विचरण करते हैं ('विहरंति') तक (सू. १९६ के अनुसार) करना चाहिए।
[२] सक्के यऽत्थ देविंदे देवराया परिवसति वज्जपाणी पुरंदरे सतक्कतू सहस्सक्खे मघवं पागसासणे दाहिणड्ढलोगाधिवती वत्तीसविमाणावाससतसहस्साधिवती एरावणवाहणे सुरिंदे अरयंबरवत्थधरे आलइयमाल-मउडे णवहेमचारुचित्तचंचलकुंडलविलिहिज्जमाणगंडे महिड्ढिए जाव (सु. १९६) पभासेमाणे।
से णं तत्थ बत्तीसाए विमाणावाससतसहस्साणं चउरासीए सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं चउण्हं लोगपालाणं अट्ठण्हं अग्गभहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्हं अणियाधिवतीणं चउण्हं चउरासीईणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसिं च बहूणं सोहम्मगकप्पवासीणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं कुव्वमाणे जाव (सु. १९६) विरहइ।
[१९७-२] इन्हीं (पूर्वोक्त स्थानों) में देवेन्द्र देवराज शक्र निवास करता है; जो वज्रपाणि पुरन्दर, शतक्रतु, सहस्राक्ष, मघवा, पाकशासन, दक्षिणार्द्धलोकाधिपति, बत्तीस लाख विमानों का अधिपति है।