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द्वितीय स्थानपद ]
वेमाणियाणं देवाणं देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महयरगत्तं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणा पालेमाणा महयाऽहतनट्ट - गीय- वाइततंती - तल-ताल-तुडित- घणमुइंगपडुप्पवाइतरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति ।
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[१९६ प्र.] भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्क वैमानिक देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ?
[१९६ उ.] गौतम! इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यधिक सम एवं रमणीय भूभाग से ऊपर, चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र तथा तारकरूप ज्योतिष्कों के अनेक सौ योजन अनेक हजार योजन, अनेक लाख योजन, बहुत करोड़ योजन और बहुत कोटाकोटी योजन ऊपर दूर जा कर सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानों में वैमानिक देवों के चौरासी लाख, सत्तानवे हजार, तेईस विमान एवं विमानावास हैं, ऐसा कहा गया है।
वे विमान सर्वरत्नमय, स्फटिक के समान स्वच्छ, चिकने, कोमल, घिसे हुए, चिकने बनाए हुए, रजरहित, निर्मल, पंक- ( या कलंक) रहित, निरावरण कान्ति वाले, प्रभायुक्त, श्रीसम्पन्न, उद्योतसहित, प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले, दर्शनीय, रमणीय रूपसम्पन्न और प्रतिरूप ( अप्रतिम सुन्दर) । इन्हीं (विमानावासों) में पर्याप्तक और अपर्याप्तक वैमानिक देवों के स्थान कहे गए हैं। (ये स्थान) तीनों (पूर्वोक्त) अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं ।
उनमें बहुत-से वैमानिक देव निवास करते हैं । वे ( वैमानिक देव) इस प्रकार हैं- सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, (नौ) ग्रैवेयक एवं (पांच) अनुत्तरौपपातिक देव ।
वे (सौधर्म से अच्युत तक के देव क्रमशः ) - १. मृग, २. महिष, ३. वराह, (शूकर), ४. सिंह, ५. बकरा (छगल), ६. दर्दुर (मेंढक ), ७. हय ( अश्व), ८. गजराज, ९. भुजंग (सर्प), १०. खङ्ग (चौपाया वन्य जानवर या गैंडा ), ११. वृषभ (बैल) और १२ विडिम के प्रकट चिह्न से युक्त मुकुट वाले, शिथिल और श्रेष्ठ मुकुट और किरीट के धारक, श्रेष्ठ कुण्डलों से उद्योतित मुख वाले, मुकुट कारण शोभायुक्त, रक्त आभायुक्त, कमल के पत्र के समान गोरे, श्वेत, सुखद वर्ण, गन्ध रस और स्पर्श वाले, उत्तम विक्रियाशक्तिधारी, प्रवर वस्त्र, गन्ध, माल्य और अनुलेपन के धारक महर्द्धिक, महाद्युतिमान् महायशस्वी, महाबली, महानुभाग, महासुखी, हार से सुशोभित वक्षस्थल वाले हैं। कड़े और बाजूबंदों से मानो भुजाओं को उन्होंने स्तब्ध कर रखा है, अंगद, कुण्डल आदि आभूषण उनके कपोलस्थल को सहला रहे हैं, कानों में वे कर्णपीठ और हाथों में विचित्र कराभूषण धारण किए हुए हैं। विचित्र पुष्पमालाएँ मस्तक पर शोभायमान हैं। वे कल्याणकारी उत्तम वस्त्र पहने हुए तथा कल्याणकारी श्रेष्ठ माला और अनुलेपन धारण किये हुए होते हैं उनका शरीर ( तेज से ) देदीप्यमान होता है । वे लम्बी वनमाला धारण किये हुए होते हैं। तथा दिव्य वर्ण से, दिव्य गन्ध से, दिव्य स्पर्श से, दिव्य अर्चि (ज्योति) से, दिव्य तेज से, दिव्य लेश्या से दसों दिशाओं को उद्योतित एवं प्रभासित करते हुए; वे ( वैमानिक देव)