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________________ १७८] [प्रज्ञापना सूत्र (इत्यादि सब वर्णन) जैसे (सू. १८८ में) सामान्य वाणव्यन्तरों का कहा गया है, वैसे ही यहाँ यावत् 'विचरण करते हैं' (विहरंति)तक जान लेना चाहिए। __[२] काल-महाकाला यऽत्थ दुहे पिसायइंदा पिसायरायाणो परिवसंति महिड्ढिया महज्जुइया जाव (सु. १८८) विहरंति। __ [१८९-२] इन्हीं (पूर्वोक्त नगरावासों) में जो दो पिशाचेन्द्र पिशाचराज-काल और महाकाल, निवास करते हैं, वे 'महर्द्धिक हैं, महाद्युतिमान हैं', इत्यादि आगे समस्त वर्णन, यावत् 'विचरण करते हैं' ('विहरंति') तक सू. १८८ के अनुसार कहना चाहिए। १९०.[१] कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! दाहिणिल्ला पिसाया देवा परिवसंति ? गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स उवरिं एगं जोयणसतं ओगाहित्ता हेट्ठा वेगं जोयणसतं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठसु जोयणसएसु, एत्थ णं दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा भोमेज्जनगरावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं। ते णं भोमेजणगरा बाहिं वट्टा जहा ओहिओ भवणवण्णओ (सु. १७७) तहा भाणियव्वो जाव पडिरूवा। एत्थ णं दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्तणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखेन्जइभागे। तत्थ णं बहवे दाहिणिल्ला पिसाया देवा परिवसंति महिड्ढिया जहा ओहिया जाव (सु. १८८) विहरंति। [१९०-१ प्र.] भगवन्! पर्याप्त और अपर्याप्त दाक्षिणात्य पिशाच देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन्! दाक्षिणात्य पिशाच देव कहाँ निवास करते हैं ? [१९०-१ उ.] गौतम! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, सुमेरु पर्वत के दक्षिण में, इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के ऊपर का एक सौ योजन (प्रदेश) अवगाहन (पार) करके तथा नीचे एक सौ योजन छोड़ कर बीच में जो आठ सौ योजन (प्रदेश) हैं, उनमें दाक्षिणात्य पिशाच देवों के तिरछे असंख्येय भूमिगृह- जैसे (भौमेय) लाखों नगरावास हैं, ऐसा कहा है। वे (भौमेय) नगर बाहर से गोल हैं, इत्यादि सब कथन जैसे (सू. १७७ में) औधिक (सामान्य) भवनों का कहा, उसी प्रकार यहाँ भी यावत् –'प्रतिरूप हैं' तक कहना चाहिए। इन (पूर्वोक्त नगरावासों) में पर्याप्त और अपर्याप्त दाक्षिणात्य पिशाच देवों के स्थान कहे हैं। (ये स्थान) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। इन्हीं (स्थानों) में बहुत-से दाक्षिणात्य पिशाच देव निवास करते हैं, 'वे महर्द्धिक हैं', इत्यादि समग्र वर्णन जैसे (सू. १८८ में) सामान्य वाणव्यन्तर देवों का किया है, तदनुसार यावत् 'विचरण करते हैं' (विहरंति) तक करना चाहिए। [२] काले यऽत्थ पिसायइंदे पिसायराया परिवसति महिड्ढीए (सु. १८८) जाव पभासेमाणे। से णं तत्थ तिरियमसंखेज्जाणं भोमेज्जगनगरावाससतसहस्साणं चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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