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________________ द्वितीय स्थानपद ] [ १७९ चउण्हमग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्हं अणियाधिवतीणं सोलसण्हं आतरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसिं च बहूणं दाहिणिल्लाणं वाणमंतराणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं (सु. १८८ ) जाव विहरति । [१९०-२] इन्हीं (पूर्ववर्णित स्थानों) में पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल निवास करते हैं, जो महर्द्धिक है, (इत्यादि सब वर्णन सू. १८८ के अनुसार) यावत् प्रभासित करता हुआ ('पभासेमाणे') तक समझना चाहिए। वह (दक्षिणात्य पिशाचेन्द्र काल ) तिरछे असंख्यात भूमिगृह जैसे लाखों नगरावासों का, चार हजार सामानिक देवों का सपरिवार चार अग्रमहिषियों का तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपति देवों का, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का तथा और भी बहुत-से दक्षिण दिशा के वाणव्यन्तर देवों और देवियों का 'आधिपत्य करता हुआ' यावत् 'विचरण करता है' (विहरति ) तक ( आगे का सारा कथन सू. १८८ के अनुसार करना चाहिए ) । १९१. [ १ ] उत्तरिल्लाणं पुच्छा । गोयमा! जहेव दाहिणिल्लाणं वत्तव्वया (सु. १९० [ १ ] ) तहेव उत्तरिल्लाणं पि । नवरं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं । [१९१-१ प्र.] भगवन्! उत्तर दिशा के पर्याप्त और अपर्याप्त पिशाच देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! उत्तर दिशा के पिशाच देव कहाँ निवास करते हैं ? [१९१-१ उ.] गौतम! जैसे (सू. १९० - १ में) दक्षिण दिशा के पिशाच देवों का वर्णन किया है, वैसे ही उत्तर दिशा के पिशाच देवों का वर्णन समझना चाहिए। विशेष यह है कि ( इनके नगरावास) मेरुपर्वत के उत्तर में हैं । [२] महाकाले यत्थ पिसायइंदे पिसायराया परिवसति जाव (सु. १९० [२] ) विहरति । [१९१-२] इन्हीं (पूर्वोक्त स्थानों) में (उत्तर दिशा का ) पिशाचेन्द्र पिशाचराज — महाकाल निवास करता है, (जिसका सारा वर्णन) यावत् 'विचरण करता है' (विहरति ) तक, सू. १९०-२ के अनुसार ( समझना चाहिए ।) १९२. एवं जहा पियासाणं ( सु. १९८९ - १९० ) तहा भूयाणं पि जाव गंधव्वाणं । णवरं इंदे णाणत्तं भाणियव्वं इमेण विहिणा - भूयाणं सुरूव-पडिरूवा, जक्खाणं पुण्णभद्द- माणिभद्दा, रक्खसाणं भीम - महाभीमा, किण्णराणं किण्णर- किंपुरिसा, किंपुरिसाणं सप्पुरिस - महापुरिसा, महोरगाणं अइकायमहाकाया, गंधव्वाणं गीतरती - गीतजसे जाव (सु. १८८ ) विहरति । काले य महाकाले १ सुरूव पडिरूव २ पुण्णभद्दे य । अमरवइ माणिभद्दे ३ भीमे य तहा महाभीमे ४ ॥ १४९ ॥ किण्णरं किंपुरिसे खलु ५ सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे ६। अइकाय महाकाए ७ गीयरई चेव गीतजसे ८ ॥ १५० ॥
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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