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द्वितीय स्थानपद]
[१७७ विचित्र मालाएँ होती हैं। ये कल्याणकारी उत्तम वस्त्र पहने हुए तथा कल्याणकारी माला एवं अनुलेपन धारण किये रहते हैं। इनके शरीर अत्यन्त देदीप्यमान होते हैं। ये लम्बी वनमालाएँ धारण करते हैं तथा दिव्य वर्ण से, दिव्य गन्ध से, दिव्य स्पर्श से, दिव्य संहनन से, दिव्य संस्थान (आकृति) से, दिव्य ऋद्धि से, दिव्य द्युति से, दिव्य प्रभा से, दिव्य छाया (कान्ति) से दिव्य अर्चि (ज्योति) से, दिव्य तेज से एवं दिव्य लेश्या से दशों दिशाओं को उद्योतित एवं प्रभासित करते हुए वे (वाणव्यन्तर देव) वहाँ (पूर्वोक्त स्थानों में) अपने-अपने लाखों भौमेय नगरावासों का, अपने-अपने हजारों सामानिक देवों का, अपनीअपनी अग्रमहिषियों का, अपनी-अपनी परिषदों का, अपनी-अपनी सेनाओं का, अपने-अपने सेनाधिपति देवों का, अपने-अपने आत्मरक्षक देवों का और अन्य बहुत-से वाणव्यन्तर देवों और देवियों का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरकत्व, आज्ञैश्वरत्व एवं सेनापतित्व करते-कराते तथा उनका पालन करते-कराते हुए वे (वाणव्यन्तर देवगण) महान् उत्सव के साथ नृत्य, गीत और वीणा, तल, ताल (कांसा), त्रुटित, घनमृदंग आदि वाद्यों को बजाने से उत्पन्न महाध्वनि के साथ दिव्य उपभोग्य भोगों को भोगते हुए रहते हैं।
१८९.[१] कहि णं भंते! पिसायाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! पिसाया देवा परिवसंति ? ___ गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स उवरि एगं जोयणसतं ओगाहित्ता हेट्ठा वेगं जोयणसतं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठसु जोयणसएसु, एत्थ णं पिसायाणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा भोमेज्जणगरावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं। ते णं भोमेजणगरा बाहिं वट्टा जहा ओहिओ भवणवज्जओ (सु. १७७) तहा भाणितव्वो जाव पडिरूवा। एत्थ णं पिसायाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे।तत्थ णं बहवे पिसाया देवा परिवसंति महिड्ढिया जहा ओहिया जाव (सु. १८८) विहरंति।
_[१८९-१ प्र.] भंते! पर्याप्तक और अपर्याप्तक पिशाच देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! पिशाच देव कहाँ रहते हैं ?
[१८९-१ उ.] गौतम! इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के ऊपर के एक सौ योजन (प्रदेश) को अवगाहन (पार) करके तथा नीचे एक सौ योजन (प्रदेश) को छोड़कर, बीच में आठ सौ योजन (प्रदेश) में, पिशाच देवों के तिरछे असंख्यात भूगृह के समान लाखों (भौमेय) नगरावास हैं, ऐसा कहा है।
वे भौमेय नगर (नगरावास) बाहर से गोल (वर्तुल) हैं इत्यादि सब वर्णन जैसे सू. १७७ से समान्य भवनों में कहा वैसा ही यहाँ यावत् 'प्रतिरूप हैं' तक कहना चाहिए। इन (नगरावासों) में पर्याप्तक और अपर्याप्तक पिशाच देवों के स्थान कहे गए हैं। (वे स्थान) तीनों (पूर्वोक्त) अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं; जहाँ कि बहुत-से पिशाच देव निवास करते हैं। जो महर्द्धिक हैं,