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________________ द्वितीय स्थानपद] [१७३ कुल २० इन्द्रों के नाम तथा दस प्रकार के भवनवासियों के प्रत्येक के शारीरिक और वस्त्र सम्बन्धी वर्ण का उल्लेख किया है। कुछ कठिन शब्दों की व्याख्या -पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिया -पुष्कर -कमल की कर्णिका के समान आकार में संस्थित हैं। कर्णिका उन्नत एवं समान चित्रविचित्र बिन्दु रूप होती है। 'उक्किण्णंतरविउलगंभीरखातपरिहा'—उन भवनों के चारों ओर खाइयाँ और परिखाएँ है। जिनका अन्तर उत्कीर्ण की तरह स्पष्ट प्रतीत होता है। वे विपुल यानी अत्यन्त गम्भीर (गहरी) हैं। जो ऊपर से चौड़ी और नीचे से संकड़ी हो उसे परिखा कहते हैं और जो ऊपर-नीचे समान हो, उसे खात (खाई) कहते है। यह परिखा और खाई में अन्तर है। पागारऽट्टालय-कवाड-तोरण-पडिदुवार-देसभागाप्रत्येक भवन के प्राकार, अट्टालक, कपाट, तोरण और प्रतिद्वार यथास्थान बने हुए हैं। प्राकार कहते हैं —साल या परकोटे को। उस पर भृत्यवर्ग के लिए बने हुए कमरों को अट्टालक या अटारी कहते हैं। बड़े दरवाजों (फाटकों) के निकट छोटे द्वार 'तोरण' कहलाते हैं। बड़े द्वारों के सामने जो छोटे द्वार रहते हैं, उन्हें प्रतिद्वार कहते हैं। अउज्झा-जहाँ शत्रुओं द्वारा युद्ध करना अशक्य हो, ऐसे अयोध्य भवन। खेमा-शत्रुकृत उपद्रव से रहित। सिवा-सदा मंगलयुक्त। चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा —जिन भवनों के प्रतिद्वारों के देशभाग में चन्दन के घड़ों से अच्छी तरह बनाए हुए तोरण हैं। 'सव्वरयणामया ...... लण्हा-वे असुरकुमारों के भवन पूर्णरूप से रत्नमय, अच्छा—स्फटिक के समान स्वच्छ, सण्हा —स्निग्ध पुद्गलस्कन्धों से निर्मित, और कोमल होते हैं। निप्पंका-कलंक या कीचड़ से रहित। निक्कंकडछाया -वे भवन उपघात आवरण से रहित (निष्कंकट) छाया यानी कान्ति वाले होते हैं। समरिया -उनमें से किरणों का जाल बाहर निकलता रहता है। सउज्जोया-उद्योतयुक्त अर्थात्-बाहर स्थित वस्तुओं को भी प्रकाशित करने वाले। पासादीया -मन को प्रसन्न करने वाले। दरिसणिज्जा -दर्शनीय –दर्शनयोग्य, जिन्हें देखने में नेत्र थकें नहीं। - दिव्वतुडियसद्दसंपणादिया-दिव्य वीणा, वेणु, मृदंग आदि वाद्यों की मनोहर ध्वनि से सदा गूंजते रहने वाले। पडिरूवा–प्रतिरूप –उनमें प्रतिक्षण नया-नया रूप दृष्टिगोचर होता है। धवलपुष्फदंताकुंद आदि के श्वेतवर्ण-पुष्पों के समान श्वेत दांत वाले, असियकेसा –काले केश वाले। ये दांत और केश औदारिक पुद्गलों के नहीं, वैक्रिय के समझने चाहिए। महिड्ढिया— भवन, परिवार आदि महान् ऋद्धियों से युक्त। महज्जुइया -जिनके शरीरगत और आभूषणगत महती द्युति है। महब्बला-शारीरिक और प्राणगत महती शक्ति वाले। महाणुभागे -महान् अनुभाग -सामर्थ्यशील, अर्थात् जिनमें शाप और अनुग्रह का महान् सामर्थ्य हो। दिव्वेण संघयणेणं-दिव्य संहनन से। यहाँ देवों के संहनन का कथन शक्तिविशेष की अपेक्षा से कहा गया है। क्योंकि संहनन अस्थिरचनात्मक (हड्डियों की रचना विशेष) होता है, देवों के हड्डियाँ नहीं होती। इसीलिए जीवाभिगमसूत्र में कहा है -'देवा असंघयणी, जम्हा तेसिं नेवट्ठी नेव सिरा .......' (देव असंहनन होते हैं, क्योंकि उनके न तो हड्डी होती है, न ही १. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. १, पृ. ५५ से ६३ तक
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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