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[प्रज्ञापना सूत्र विद्युत्कुमारों, स्तनतिकुमारों और अग्निकुमारों के प्रत्येक के छत्तीस-छत्तीस लाख भवन हैं ॥ १४१ ॥
सामानिकों और आत्मरक्षकों की संख्या - इस प्रकार है –१ –(दक्षिण दिशा के) असुरेन्द्र के ६४ हजार और (उत्तरदिशा के असुरेन्द्र के) ६० हजार हैं; असुरेन्द्र को छोड़ कर (शेष सब २ से १०–दक्षिण-उत्तर के इन्द्रों के प्रत्येक) के छह-छह हजार सामानिकदेव हैं। आत्मरक्षकदेव (प्रत्येक इन्द्र के सामानिकों की अपेक्षा) चौगुने-चौगुने होते हैं ॥ १४२॥
दाक्षिणात्य इन्दों के नाम -१ -(असुरकुमारों का) चमरेन्द्र, २-(नागकुमारों का) धरणेन्द्र ३-(सुपर्णकुमारों का) वेणुदेवेन्द्र, ४-(विद्युतकुमारों का) हरिकान्त, ५–(अग्निकुमारों का) अग्निसिंह (या अग्निशिख), ६-(द्वीपकुमारों का) पूर्णेन्द्र, ७–(उदधिकुमारों का) जलकान्त, ८-(दिशाकुमारों का) अमित, ९–(वायुकुमारों का) वैलम्ब और १०—(स्तनितकुमारों का) इन्द्र घोष है ॥ १४३ ॥
उत्तरदिशा के इन्द्रों के नाम -१-(असुरकुमारों का) बलीन्द्र, २-(नागकुमारों का) भूतानन्द, ३-(सुपर्णकुमारों का) वेणुदालि, ४-(विद्युत्कुमारों का) हरिस्सह, ५-(अग्निकुमारों का) अग्निमाणव, ६-द्वीपकुमारों का वशिष्ठ, ७–(उदधिकुमारों का) जलप्रभ, ८–दिशाकुमारों का) अमितवाहन, ९-(वायुकुमारों का) प्रभंजन और १०-(स्तननितकुमारों का) महाघोष इन्द्र है ॥ १४४॥
(ये दसों) उत्तरदिषा के इन्द्र ....... यावत् विचरण करते हैं।
वर्णों का कथन -सभी असुरकुमार काले वर्ण के होते हैं, नागकुमारों और उदधिकुमारों का वर्ण पाण्डुर अर्थात् -शुक्ल होता है, सुपर्णकुमार, दिशाकुमार और स्तनितकुमार कसौटी (निकषपाषाण) पर बनी हुई श्रेष्ठ स्वर्णरेखा के समान गौर वर्ण के होते हैं ॥ १४५ ॥
विद्युतकुमार, अग्निकुमार और द्वीपकुमार तपे हुए सोने के समान (किञ्चित् रक्त) वर्ण के होते हैं और वायुकुमार श्याम प्रियंगु के वर्ण के समझने चाहिए॥ १४६॥
इनके वस्त्रों के वर्ण-असुरकुमारों के वस्त्र लाल होते हैं, नागकुमारों और उदधिकुमारों के वस्त्र शिलिन्ध्रपुष्प की प्रभा के समान (नीले) होते हैं, सुपर्णकुमारों, दिशाकुमारों और स्तनितकुमारों के वस्त्र अश्व के मुख के फेन के सदृश अतिश्वेत होते हैं ॥ १४७॥
विद्युत्कुमारों, अग्निकुमारों और द्वीपकुमारों के वस्त्र नीले रंग के होते हैं और वायुकुमारों के वस्त्र सन्ध्याकाल की लालिमा जैसे वर्ण के जानने चाहिए ॥१४८ ॥
विवेचन–सर्व भवनवासी देवों के स्थानों की प्ररूपणा —प्रस्तुत ग्यारह सूत्रों (सू. १७७ से १८७ तक) में शास्त्रकार ने सामान्य भवनवासी देवों से लेकर असुरकुमारादि दस प्रकार के, तथा उनमें भी दक्षिण और उत्तर दिशओं के, फिर उनके भी प्रत्येक निकाय के इन्द्रों के (विविध अपेक्षाओं से) स्थानों, भवनवासों की संख्या और विशेषता तथा प्रत्येक प्रकार के भवनवासी देवों और इन्द्रों के स्वरूप, वैभव एवं सामर्थ्य, प्रभाव आदि का विस्तृत वर्णन किया है। अन्त में -संग्रहणी गाथाओं द्वारा प्रत्येक प्रकार के भवनवासी देवों के भवनों, सामानिकों और आत्मरक्षक देवों की संख्या, दाक्षिणात्य और औदीच्य