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________________ द्वितीय स्थानपद] [१६९ तत्थ णं बहवे सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति महिड्ढीया, सेसं जहा ओहियाणं (सु. १७७) जावविहरंति। [१८४-१ प्र.] भगवन्! पर्याप्त और अपर्याप्त सुपर्णकुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं? भगवन् ! सुपर्णकुमार देव कहाँ निवास करते हैं?[१८४-१ उ.] गौतम! इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक-एक हजार ऊपर और नीचे के भाग को छोड़ कर शेष भाग में यावत् सुपर्णकुमार देवों के बहत्तर लाख भवनावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे भवन (भवनावास) बाहर से गोल यावत् प्रतिरूप तक (समग्र वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए।) वहाँ पर्याप्त और अपर्याप्त सुपर्णकुमार देवों के स्थान कहे गए हैं। (वे स्थान) (पूर्वोक्त) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ बहुत:से सुपर्णकुमार देव निवास करते हैं, जो कि महर्द्धिक हैं; (इत्यादि समग्र वर्णन) यावत् 'विचरण करते हैं ' (तक) औधिक (सामान्य असुरकुमारों की) तरह (सू. १७७ के अनुसार समझना चाहिए।) ___[२] वेणुदेव-वेणुदाली यऽत्थ सुवण्णकुमारिदा सुवण्णकुमाररायाणो परिवसंति महड्ढीया जाव (सु. १७७) विहरंति। [१८४-२] इन्हीं (पूर्वोक्त स्थानों) में से सुपर्णकुमारेन्द्र सुपर्णकुमारराज-वेणुदेव और वेणुदाली निवास करते हैं, जो महर्द्धिक हैं; (शेष समग्र वर्णन सू. १७७ के अनुसार) यावत् 'विचरण करते है'; तक समझ लेना चाहिए। १८५. [१] कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! दाहिणिल्ला सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा! इमीसे जाव मझे अट्ठहत्तरे जोयणसतसहस्से, एत्थ णं दाहिणिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं अट्ठतीसं भवणावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं। ते णं भवणा बाहिं वट्ठा जाव पडिरूवा। एत्थ णं दाहिणिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे। एत्थ णं बहवे सुवण्णकुमारा देवा परिवंसति। [१८५-१ प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त दक्षिणात्य सुपर्णकुमारों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! दाक्षिणात्य सुपर्णकुमार देव कहाँ निवास करते हैं ? [१८५-१ उ.] गौतम! इसी रत्नप्रभापृथ्वी के यावत् मध्य में एक लाख अठहत्तर हजार योजन (प्रदेश) में, दाक्षिणात्य सुपर्णकुमारों के अड़तीस लाख भवनावास हैं; ऐसा कहा गया है। वे भवन (भवनावास) बाहर से गोल यावत् प्रतिरूप हैं; (यहाँ तक का शेष वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए), यहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक दाक्षिणात्य सुपर्णकुमारों के स्थान कहे गए हैं। (वे स्थान) तीनों (पूर्वोक्त) अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। यहाँ बहुत-से सुपर्णकुमार देव निवास करते हैं। [२] वेणुदेव यऽत्थ सुवण्णिदे सुवण्णकुमारराया परिवसइ। सेसं जहा णागकुमाराणं (सु. १८२ [२])। १. 'जाव' एवं 'जहां' शब्द से तत्स्थानीय समग्र वर्णन संकेतित सूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिए।
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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