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[प्रज्ञापना सूत्र
उपपात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में—बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तक जीवों का जो स्वस्थान कहा गया है, उसकी प्राप्ति के अभिमुख होना उपपात है, उस उपपात को लेकर वे चतुर्दशरज्वात्मक लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, क्योंकि उनका रत्नप्रभादि समुदित स्वस्थान भी लोक के असंख्यातवें भाग में है। पर्याप्त बादरपृथ्वीकायिक थोड़े हैं, इसलिए उपपात के समय अपान्तरालगत होने पर भी वे सभी स्वस्थान लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं, इस कथन में कोई दोष नहीं है।
समुद्घात की अपेक्षा से भी लोक के असंख्यातवें भाग में—बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तक जीव समुद्घात-अवस्था में स्वस्थान के अतिरिक्त क्षेत्रान्तरवर्ती होने पर भी लोक के असंख्यातवें भाग में ही होते हैं, कारण यह है कि बादर पृथ्वीकायिकजीव सोपक्रम आयु वाले हों या निरुपक्रम आयु वाले, जब भुज्यमान आयु का तृतीय भाग शेष रहने पर परभव की आयु का बन्ध करके मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, तब उनके दण्डरूप में फैले हुए आत्मप्रदेश भी लोक के असंख्यातवें भाग में ही होते हैं, क्योंकि वे जीव थोड़े ही होते हैं। उन बादर पृथ्वीकायिकों की आयु अभी क्षीण नहीं हुई, इसलिए वे बादर पृथ्वीकायिक तब (समुद्घात-अवस्था में) भी पर्याप्तरूप में उपलब्ध होते हैं।
स्वस्थान की अपेक्षा से भी लोक के असंख्यातवें भाग में स्वस्थान हैं-रत्नप्रभादि। वे सब मिल कर भी लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। जैसे कि–रत्नप्रभा पृथ्वी का पिण्ड एक लाख, अस्सी हजार योजन का है। इसी प्रकार अन्य पृथ्वियों की भिन्न-भिन्न मोटाई भी कह लेनी चाहिए। पातालकलश भी एक लाख योजन अवगाह वाले होते हैं। नरकवास भी तीन हजार योजन ऊँचे होते हैं। विमान भी बत्तीस सौ योजन विस्तत होते हैं। अतएव ये सभी परिमित होने के कारण सब मित असंख्यातप्रदेशात्मक लोक के असंख्यातवें भागवर्ती ही होते हैं।
अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिकः उपपात और समुद्घात की अपेक्षा से—दानों अपेक्षाओं से ये समस्त लोक में रहते हैं। अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक उपपातावस्था में विग्रहगति (अपान्तराल गति) में होते हुए भी स्वस्थान में भी अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक की आयु का वेदन विशिष्ट विपाकवश करते हैं तथा वे देवों व नारकों को छोड़कर शेष सभी कार्यों से उत्पन्न होते हैं, उवृत्त होने पर (मरने पर) भी वे देवों और नारकों को छोड़कर शेष सभी स्थानों में जाते हैं । मर कर स्वस्थान में जाते समय वे विग्रहगति में रहे हुए (उपपातावस्था में) भी अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक ही कहलाते हैं, वे स्वभाव से ही प्रचुरसंख्या में होते हैं, इसलिए उपपात और समदघात की अपेक्षा से सर्वलोकव्यापी होते हैं। इनमें से किन्हीं का उपपात ऋजुगति से होता है, और किन्हीं का वक्रगति से। ऋजुगति तो सुप्रतीत है। वक्रगति की स्थापना इस प्रकार है—जिस समय में प्रथम वक्र (मोड़) को कई जीव संहरण करते हैं, उसी समय दूसरे जीव उस वक्रदेश को आपूरित कर देते हैं। इसी प्रकार द्वितीय वक्रदेश के संहरण में भी, वक्रोत्पत्ति में भी प्रवाह से निरन्तर आपूरण होता रहता है।