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द्वितीय स्थानपद ]
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सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्तों और अपर्याप्तों के तीन स्थान — सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों के जो पर्याप्त और अपर्याप्त जीव हैं, वे सभी एक ही प्रकार के हैं, पूर्वकृत स्थान आदि के विचार की अपेक्षा से इनमें कोई भेद नहीं होता, कोई विशेष नहीं होता, जैसे पर्याप्त हैं, वैसे ही दूसरे हैं तथा वे नानात्व से रहित हैं, देशभेद से उनमें नानात्व परिलक्षित नहीं होता । तात्पर्य यह है कि जिन आधारभूत आकाशप्रदेशों में ये (एक) हैं, उन्हीं में दूसरे हैं। अतः वे सभी सूक्ष्म पृथ्वीकायिक उपपात, समुद्घात और स्वस्थान, इन तीनों अपेक्षाओं से सर्वलोकव्यापी हैं ।
कठिन शब्दों के विशेष अर्थ - 'भवणेसु' - भवनपतियों के रहने के भवनों में, 'भवन - पत्थडेसु' - भवनों के प्रस्तटों यानी भवनभूमिकाओं में ( भवनों के बीच के भागों – अन्तरालों में)। 'णिरएसु निरयावलिकासु' – नरकों (प्रकीर्णक नरकवास) में, तथा आवली रूप से स्थित नरकवासों में । 'कप्पेसु' – कल्पों— सौधर्मादि बारह देवलोकों में । 'विमाणेसु' – ग्रेवेयकसम्बन्धी प्रकीर्णक विमानों में। ‘टंकेसु’— छिन्न टंकों (एक भाग कटे हुए पर्वतों में ) । ' कूटेसू ' – कूटों — पर्वत के शिखरों में । 'सेलेसु' –शैलों— शिखरहीन पर्वतों में । 'विजयेसु ' -- विजयों— कच्छादि विजयों में । 'वक्खारेसु ' - विद्युत्प्रभ आदि वक्षस्कार पर्वतों में । 'वेलासु' - समुद्रादि के जल की तटवर्ती रमणभूमियों में । 'वेदिकासु' – जम्बूद्वीप की जगती आदि से सम्बन्धित वेदिकाओं में । 'तोरणेसु' - विजय आदि द्वारों में, द्वारादि सम्बन्धी तोरणों में । 'दीवेसु समुद्देसुण्क'' – समस्त द्वीपों और समस्त समुद्रों में । यहाँ 'एक' शब्द 'चार' संख्या का द्योतक है, ऐसा किन्हीं विद्वानों का अभिप्राय है । २
अप्कायिकों के स्थानों का निरूपण
१५१. कहि णं भंते! बादरआउकाइयाणं पज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? गोमा ! साणं सत्तसु घणोदधीसु सत्तसु घणोदधिवलएसु १ । अहोलोए पायाले भवणेसु भवणपत्थडेसु २ ।
उड्ढलोए कप्पेसु विमाणेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु ३ ।
तिरियलोए अगडेसु तलाएसु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजलियासु सरेसु सरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निज्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु सव्वेसु चेव जलासएसु जलट्ठाणेसु ४ ।
एत्थ णं बादरआउकाइयाणं पज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ।
उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे ।
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय वृत्ति, पत्रांक ७३-७४
२.
(क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ७३
(ख) पण्णवणासुत्तं मूलपाठ-टिप्पण पृ. ४६