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________________ द्वितीय स्थानपद ] १४९. कहि णं भंते! बादरपुढविकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोमा ! जत्थेव बादरपुढविकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा तत्थेव बादरपुढविकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। तं जहा — उववाएणं सव्वलोए, समुग्धाएणं सव्वलोए, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे । [१४९ प्र.] भगवन्! बादरपृथ्वीकायिकों के अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ कहे हैं ? [१४९ उ.] गौतम! जहाँ बादरपृथ्वीकायिक- पर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं, वहीं बादरपृथ्वीकायिक-अपर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं। जैसे कि—उपपात की अपेक्षा से सर्वलोक में, समुद्घात की अपेक्षा से समस्त लोक तथा स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । [ १२९ १५०. कहि णं भंते! सुमपुढविकाइयाणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाणं य ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सुहुमपुढविकाइया जे पज्जत्तगा जे य अपज्जत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसा अणाणत्ता सव्वलोयपरियावण्णगा पण्णत्ता समणाउसो ! [१५० प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मपृथ्वीकायिक- पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? [१५० उ.] गौतम! सूक्ष्मपृथ्वीकायिक, जो पर्याप्तक हैं और जो अपर्याप्तक हैं, वे सब एक ही प्रकार के हैं, विशेषतारहित (सामान्य) हैं, नानात्व ( अनेकत्व) से रहित हैं और हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे समग्र लोक में परिव्याप्त कहे गए हैं । विवेचन — पृथ्वीकायिकों के स्थानों का निरूपण – प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. १४८ से १५० तक) में बादर, सूक्ष्म, पर्याप्तक और अपर्याप्तक सभी प्रकार के पृथ्वीकायिकों के स्थानों का निरूपण किया गया है। 'स्थान' की परिभाषा और प्रकार — जीव जहाँ-जहाँ रहते हैं, जीवन के प्रारम्भ से अन्त तक जहां रहते हैं, उसे ‘स्वस्थान' कहते हैं, जहाँ एक भव से छूट कर दूसरे भव में जन्म लेने से पूर्व बीच में स्वस्थानाभिमुख होकर रहते हैं, उसे 'उपपातस्थान' कहते हैं और समुद्घात करते समय जीव के प्रदेश जहाँ रहते हैं, जितने आकाशप्रदेश में रहते हैं, उसे 'समुद्घातस्थान' कहते हैं । पृथ्वीकायिकों के तीनों लोकों में निवासस्थान कहाँ-कहाँ और कितने प्रदेश में ? शास्त्रकार ने पृथ्वीकायिकों (बादर- सूक्ष्म - पर्याप्त - अपर्याप्तों) के स्वस्थान तीन दृष्टियों से बताए हैं – (१) सात नरक पृथ्वियों में और आठवीं ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी में, तत्पश्चात् (२) अधोलोक, ऊर्ध्वलोक और तिर्यग्लोक में विभिन्न स्थानों में, तथा (३) स्वस्थान में भी लोक के असंख्यातवें भाग में । इसके अतिरिक्त बादर पर्याप्तक- अपर्याप्तक के उपपातस्थान क्रमशः लोक के असंख्यातवें भाग में तथा सर्वलोक में और समुद्घातस्थान पूर्वोक्त दोनों पृथ्वीकायिकों के क्रमशः लोक के असंख्यातवें भगा में तथा सर्वलोक में बताया गया है । (क) पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ) भा. १, पृ. ६४ १. (ख) पण्णवणासुत्तं भा. २, पद २ की प्रस्तावना
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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