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________________ ७४ [प्रज्ञापना सूत्र (६) पुष्यफल, कालिंग आदि फलों का प्रत्येक पत्ता (पृथक्-पृथक्), वृन्त, गिरि और गूदा और जटावाले या बिना जटा के बीज एक-एक जीव से अधिष्ठित होते हैं। बीज का जीव मूलादि का जीव बन सकता है या नहीं?— बीज की दो अवस्थाएं होती हैंयोनि-अवस्था और अयोनि-अवस्था। जब बीज योनि-अवस्था का परित्याग नहीं करता किन्तु जीव के द्वारा त्याग दिया जाता है, तब वह बीज योनिभूत कहलाता है। जीव के द्वारा बीज त्याग दिया गया है, छद्मस्थ के द्वारा निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। अतः आजकल चेतन या अचेतन, जो अविध्वस्तयोनि है, उसे योनिभूत कहते हैं । जो विध्वस्तयोनि है, वह नियमतः अचेतन होने से अयोनिभूत बीज है। ऐसा बीज उगने से समर्थ नहीं रहता। तात्पर्य यह है कि योनि कहते हैं-जीव के उत्पत्तिस्थान को। अविध्वस्तशक्ति-सम्पन्न बीज ही योनिभूत होता है, उसी में जीव उत्पन्न होता है। प्रश्न यह है कि ऐसे योनिभूत बीज में वही पहले के बीज वाला जीव आकर उत्पन्न होता है अथवा दूसरा कोई जीव आकर उत्पन्न होता है? उत्तर है-दोनों ही विकल्प हो सकते हैं। तात्पर्य यह है कि बीज में जो जीव था, उसने अपनी आयु का क्षय होने पर बीज का परित्याग कर दिया। यह बीज निर्जीव हो गया किन्तु उस बीज को पुनः पानी, काल और जमीन के संयोगरूप सामग्री मिले तो कदाचित् वही पहले वाला बीज मूल आदि का नाम-गोत्र बांध कर उसी पूर्व-बीज में आकर उत्पन्न हो जाता है, और कभी कोई अन्य पृथ्वीकायिक आदि नया जीव भी उस बीज में उत्पन्न हो जाता है। साधारणशरीर बादरवनस्पतिकायिकजीवों का लक्षण साधारण वनस्पतिकायिक जीव एक साथ ही उत्पन्न होते हैं, एक साथ ही उनका शरीर बनता है, एक साथ ही वे प्राणापान के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और एक साथ ही उनका श्वासोच्छ्वास होता है। एक जीव का आहारादि के पुद्गलों को ग्रहण करना ही (उस शरीर के आश्रित) बहुत-से जीवों का ग्रहण करना है, इसी प्रकार बहुत-से जीवों का आहारादि-पुद्गल-ग्रहण करना भी एक जीव का आहारादि-पुद्गल-ग्रहण करना है; क्योंकि वे सब जीव एक ही शरीर-आश्रित होते हैं। एक शरीर-आश्रित साधारण जीवों का आहार, प्राणापानयोग्य पुद्गलग्रहण एवं श्वासोच्छ्वास साधारण ही होता है। यही साधारण जीवों का साधारणरूप लक्षण है। एक निगोदशरीर में अनन्तजीवों का परिणमन कैसे होता है? इसका समाधान यह है-अग्नि में प्रतप्त लोहे का गोला जैसे सारा-का-सारा अग्निमय बन जाता है, वैसे ही निगोदरूप एकशरीर में अनन्त जीवों का परिणमन समझ लेना चाहिए। एक, दो, तीन, संख्यात या असंख्यात निगोदजीवों के शरीर हमें नहीं दिखाई दे सकते, क्योंकि उनके पृथक्-पृथक् शरीर ही नहीं हैं, वे तो अनन्तजीवों के पिण्डरूप ही होते हैं। अर्थात् अनन्तजीवों का एक ही शरीर होता है। हमें केवल अनन्तजीवों के शरीर ही दिखाई देते हैं, वे भी बादर निगोदजीवों के ही; सूक्ष्म निगोदजीवों के नहीं; क्योंकि सूक्ष्म निगोदजीवों के शरीर अनन्त १. (क) प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका, भा. १, पृ. ३०० से ३२५ तक (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३५-३६-३७ २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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