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प्रथम प्रज्ञापनापद ]
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जीवात्मक होने पर भी वे अदृश्य (दृष्टि से अगोचर ) हो जाते हैं । स्वाभाविकरूप से उसी प्रकार के सूक्ष्मपरिणामों से परिणत उनके शरीर होते हैं । अनन्त निगोदजीवों का एक ही शरीर होता है, इस विषय में वीतराग सर्वज्ञ तीर्थकर भगवान् के वचन ही प्रमाणभूत हैं । भगवान् का कथन है- 'सुई की नोंक के बराबर निगोदकाय में असंख्यात गोले होते हैं, एक-एक गोले में असंख्यात असंख्यात निगोद होते हैं और एक-एक निगोद में अनन्त अनन्त जीव होते हैं ।"
अनन्त निगोदिया जीवों का शरीर एक ही होता है, यह कथन औदारिकशरीर की अपेक्षा जानना चाहिए | उन सबके तैजस और कार्मण शरीर भिन्न-भिन्न ही होते हैं ।
द्वीन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना
५६. [ १ ] से किं तं बेंदिया ? बेंदिया (से किं तं बेइंदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा ? बेइंदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा) अणेगविहा पन्नता । तं जहा - पुलिकिमिया कुच्छिकिमिया गंडू लगा गोलोमो णेउरा सोमंलगा वंसीमुहा सूईमुहा गोजलोया जलोया जलोउया संख संखणगा घुल्ला - खुल्ला गुलाया खंधा वराडा सोत्तिया मोत्तिया कलुयावासा एगओवत्ता दुहओवत्ता दियावत्ता संवुक्कामाईवाहा सिप्पिसंपुडा चंदणा समुद्दलिक्खा, जे यावऽण्णे तहप्पगारा । सव्वेते सम्मुच्छिमा नपुंसगा ।
[५६-१ प्र.] वे (पूर्वोक्त) द्वीन्द्रिय जीव किस प्रकार के है ? [ वह द्वीन्द्रिय-संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना क्या है ? ]
[५६ - १ उ.] द्वीन्द्रिय ( द्वीन्द्रिय- संसारसमापन्न जीव - प्रज्ञापना) अनेक प्रकार के कहे गए हैं । ( अनेक प्रकार की कही गई है ।) वह इस प्रकार - पुलाकृमिक, कुक्षिकृमिक, गण्डूयलग, गोलोम, नूपर, सौमंगलक, वंशीमुख, सूचीमुख, गौजलोका, जलोका, जलोयुक ( जलायुष्क), शंख, शंखनक, घुल्ला, खुल्ला, गुडज, स्कन्ध, वराटा ( वराटिका कौडी), सौक्तिक, मौक्तिक ( सौत्रिक मूत्रिक), कलुकावास एकतोवृत्त, द्विधातोवृत्त, नन्दिकावर्त्त, शम्बूक शुक्तिसम्पुट, चन्दनक, समुद्र - लिक्षा । अन्य जितने भी इस प्रकार के हैं, उन्हें द्वीन्द्रिय समझना चाहिए ।) ये उपर्युक्त प्रकार के सभी ( द्वीन्द्रिय) सम्मूच्छिम और नपुंसक हैं।
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[२] ते समासतो दुविहा पन्नत्ता । तं जहा - पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य । एएसि णं एवमादियाणं बेइंदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं सत्त जाइकुलकोडिजोणीपमुहसतसहस्सा भवंतीति मक्खातं । से तं बेइंदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा ।
[५६-२] ये (द्वीन्द्रिय) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार — पर्याप्तक और
१.
(क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९-४०
(ख) गोला य असंखेज्जा होंति निगोया असंखया गोले ।
एक्केको य निगोओ अनंत जीवो मुणेयव्वो ॥