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________________ प्रथम प्रज्ञापनापद ] ७५ जीवात्मक होने पर भी वे अदृश्य (दृष्टि से अगोचर ) हो जाते हैं । स्वाभाविकरूप से उसी प्रकार के सूक्ष्मपरिणामों से परिणत उनके शरीर होते हैं । अनन्त निगोदजीवों का एक ही शरीर होता है, इस विषय में वीतराग सर्वज्ञ तीर्थकर भगवान् के वचन ही प्रमाणभूत हैं । भगवान् का कथन है- 'सुई की नोंक के बराबर निगोदकाय में असंख्यात गोले होते हैं, एक-एक गोले में असंख्यात असंख्यात निगोद होते हैं और एक-एक निगोद में अनन्त अनन्त जीव होते हैं ।" अनन्त निगोदिया जीवों का शरीर एक ही होता है, यह कथन औदारिकशरीर की अपेक्षा जानना चाहिए | उन सबके तैजस और कार्मण शरीर भिन्न-भिन्न ही होते हैं । द्वीन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना ५६. [ १ ] से किं तं बेंदिया ? बेंदिया (से किं तं बेइंदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा ? बेइंदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा) अणेगविहा पन्नता । तं जहा - पुलिकिमिया कुच्छिकिमिया गंडू लगा गोलोमो णेउरा सोमंलगा वंसीमुहा सूईमुहा गोजलोया जलोया जलोउया संख संखणगा घुल्ला - खुल्ला गुलाया खंधा वराडा सोत्तिया मोत्तिया कलुयावासा एगओवत्ता दुहओवत्ता दियावत्ता संवुक्कामाईवाहा सिप्पिसंपुडा चंदणा समुद्दलिक्खा, जे यावऽण्णे तहप्पगारा । सव्वेते सम्मुच्छिमा नपुंसगा । [५६-१ प्र.] वे (पूर्वोक्त) द्वीन्द्रिय जीव किस प्रकार के है ? [ वह द्वीन्द्रिय-संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना क्या है ? ] [५६ - १ उ.] द्वीन्द्रिय ( द्वीन्द्रिय- संसारसमापन्न जीव - प्रज्ञापना) अनेक प्रकार के कहे गए हैं । ( अनेक प्रकार की कही गई है ।) वह इस प्रकार - पुलाकृमिक, कुक्षिकृमिक, गण्डूयलग, गोलोम, नूपर, सौमंगलक, वंशीमुख, सूचीमुख, गौजलोका, जलोका, जलोयुक ( जलायुष्क), शंख, शंखनक, घुल्ला, खुल्ला, गुडज, स्कन्ध, वराटा ( वराटिका कौडी), सौक्तिक, मौक्तिक ( सौत्रिक मूत्रिक), कलुकावास एकतोवृत्त, द्विधातोवृत्त, नन्दिकावर्त्त, शम्बूक शुक्तिसम्पुट, चन्दनक, समुद्र - लिक्षा । अन्य जितने भी इस प्रकार के हैं, उन्हें द्वीन्द्रिय समझना चाहिए ।) ये उपर्युक्त प्रकार के सभी ( द्वीन्द्रिय) सम्मूच्छिम और नपुंसक हैं। = [२] ते समासतो दुविहा पन्नत्ता । तं जहा - पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य । एएसि णं एवमादियाणं बेइंदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं सत्त जाइकुलकोडिजोणीपमुहसतसहस्सा भवंतीति मक्खातं । से तं बेइंदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा । [५६-२] ये (द्वीन्द्रिय) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार — पर्याप्तक और १. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९-४० (ख) गोला य असंखेज्जा होंति निगोया असंखया गोले । एक्केको य निगोओ अनंत जीवो मुणेयव्वो ॥
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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