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________________ ७३ प्रथम प्रज्ञापनापद] से व्याप्त नहीं होता, किन्तु भंगस्थान का पृथ्वीसदृश भेद हो जाता है। अर्थात् सूर्य की किरणों से अत्यन्त तपे हुए खेत की क्यारियों के प्रतरखण्ड का-सा समान भंग हो जाता है, तो उसे अनन्तजीवों वाला समझना चाहिए। (५) क्षीरसहित (दूधवाले) या क्षीररहित (बिना दूध के) जिस पत्र की शिराएँ दिखती न हों, उसे, अथवा जिस पत्र की (पत्र के दोनों भागों को जोड़ने वाली) सन्धि सर्वथा दिखाई न दे, उसे भी अनन्तजीवों वाला समझना चाहिए। (६) पुष्प दो प्रकार के होते हैं-जलज और स्थलज। ये दोनों भी प्रत्येक दो-दो प्रकार के होते हैं-वृन्तबद्ध (अतिमुक्तक आदि) और नालबद्ध (जाई के फूल आदि), इन पुष्पों में से पत्रगत जीवों की अपेक्षा से कोई-कोई संख्यात जीवों वाले, कोई-कोई असंख्यात जीवों वाले और कोई-कोई अनन्त जीवों वाले भी होते हैं। आगम के अनुसार उन्हें जान लेना चाहिए। विशेष यह है कि जो जाई आदि नालबद्ध पुष्प होते हैं, उन सभी को तीर्थकरों तथा गणधरों ने संख्यातजीवों वाले कहे हैं, किन्तु स्निहूपुष्प अर्थात् - थोहर के फूल या थोहर के जैसे अन्य फूल भी अनन्त जीवों वाले समझने चाहिए। (७) पद्मिनीकन्द, उत्पलिनीकन्द, अन्तरकन्द (जलज वनस्पतिविशेष कन्द) एवं झिल्लिका नामक वनस्पति, ये सब अनन्तजीवों वाले होते हैं। विशेष यह है कि पद्मिनीकन्द आदि के विस (भिस) और मृणाल में एक जीव होता है। (८) सफ्फाक, सज्जाय, उव्वेहलिया, कूहन और कन्दूका (देशभेद से) अनन्तजीवात्मक होती हैं। (९) सभी किसलय (कोंपल) ऊगते समय अनन्तकायिक होते हैं। प्रत्येक वनस्पतिकाय, चाहे वह प्रत्येकशरीरी हो या साधारण, जब किसलय अवस्था को प्राप्त होता है, तब तीर्थकरों और गणधरों द्वारा उसे अनन्तकायिक कहा गया है। किन्तु वही किसलय बढ़ता बढ़ता, बाद में पत्र रूप धारण कर लेता है तब साधारणशरीर या अनन्तकाय अथवा प्रत्येक शरीरी जीव हो जाता प्रत्येक शरीर जीव वाली वनस्पति के लक्षण – (१) जिस मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प अथवा फल या बीज को तोड़ने पर उसके टूटे हुए (भंग) प्रदेश (स्थान) में हीर दिखाई दे, अर्थात्-उसके टुकड़े समरूप न हों, विषम हों, दंतीले हों उस मूल, कन्द या स्कन्ध को प्रत्येक (शरीरी) जीव समझना चाहिए। (२) जिस मूल, कन्द, स्कन्ध या शाखा के काष्ठ (मध्यवर्ती सारभाग) की अपेक्षा उसकी छाल अधिक पतली हो, वह छाल प्रत्येकशरीर जीव वाली समझनी चाहिए। (३) पलाण्डुकन्द, लहसुनकन्द, कदलीकन्द और कुस्तुम्ब नामक वनस्पति, ये सब प्रत्येकशरीरजीवात्मक समझने चाहिए। इस प्रकार की सभी अनन्त जीवात्मकलक्षण से रहित वनस्पतियां प्रत्येकशरीरजीवात्मक समझनी चाहिए। (४) पद्म, उत्पल, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, अरविन्द, कोकनद, शतपत्र और सहस्रपत्र, इन सब प्रकार के कमलों के वृन्त (डण्ठल), बाह्य पत्र और पत्रों की आधारभूत कर्णिका, ये तीनों एकजीवात्मक हैं। इनके भीतरी पत्ते केसर (जटा) और मिंजा भी एकजीवात्मक हैं। (५) बांस, नड नामक घास, इक्षुवाटिका, समासेक्षु, इक्कड घास, करकर, सूंठि, विहंगु और दूब आदि तृणों तथा पर्ववाली वनस्पतियों की अक्षि, पर्व, बलिमोटक (पर्व को परिवेष्ठित करने वाला चक्राकार भाग) ये सब एकजीवात्मक हैं। इनके पत्ते भी एकजीवाधिष्ठित होते हैं। किन्तु इनके पुष्प अनेक जीवों वाले होते हैं।
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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