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प्रथम प्रज्ञापनापद]
जह अयगोलो धंतो जाओ तत्ततवणिजसंकासो। सव्वो अगणिपरिणतो निगोयजीवे तहा जाण॥ १०२॥ एगस्स दोण्ह तिण्ह व संखेजाण व न पासिउं सका।
दीसंति सरीराइं णिओयजीवाणऽणंताणं ॥ १०३॥ [५४-१०] एक साथ उत्पन्न (जन्मे) हुए उन (साधारण वनस्पितकायिक जीवों की शरीर निष्पति (शरीर रचना) एक ही काल में होती (तथा) एक साथ ही (उनके द्वारा) प्राणापान-(के योग्य पुद्गलों का) ग्रहण होता है, (तत्पश्चात्) एक काल में ही (उनका) उच्छ्वास और नि:श्वास होता है ॥९९ ॥ एक जीव का जो (आहारादि पुद्गलों का) ग्रहण करना है, वही बहुत-से (साधारण) जीवों का ग्रहण करना (समझना चाहिए।) और जो (आहारादि पुद्गलों का) ग्रहण बहुत से (साधारण) जीवों का होता है, वही एक का ग्रहण होता है ॥१०० ॥ (एक शरीर में आश्रित) साधारण जीवों का आहार भी साधारण (एक) ही होता है, प्राणापान (के योग्य पुद्गलों) का ग्रहण (एवं श्वासोच्छ्वास भी) साधारण होता है। एक (साधारण जीवों का) साधारण लक्षण (समझना चाहिए।) ॥१०१॥ जैसे (अग्नि में) अत्यन्त तपाया हुआ लोहे का गोला, तपे हुए (सोने) के समान सारा का सारा अग्नि में परिणत (अग्निमय) हो जाता है, उसी प्रकार (अनन्त) निगोद जीवों का निगोदरूप एक शरीर में परिणमन होना समझ लो॥१०२॥ एक, दो, तीन, संख्यात अथवा (असंख्यात) निगोदों (के पृथक्-पृथक् शरीरों) का देखना शक्य नहीं है: (केवल) (अनन्त-) निगोदजीवों के शरीर ही दिखाई देते हैं ::१०३:: [११] लोगागासपएसे णिओयजीवं ठवेहि एक्कक्कं ।
एवं मवेजमाणा हवंति लोया अणंता उ ॥ १०४॥ लोगागासपएसे परित्तजीवं ठवेहि एक्कक्कं । एवं मविजमाणा हवंति लोया असंखेजा ॥ १०५॥ पत्तेया पजत्ता पयरस्स असंखेभागमेत्ता उ । लोगाऽसंखाऽपज्जत्तगाण साहारणमणंता ॥ १०६॥ [एएहिं सरीरेहिं पच्चक्खं ते परूविया जीवा ।
सुहुमा आणगेज्झा चक्खुप्फासं ण ते एंति ॥१॥][पक्खित्ता गाहा] जे यावऽणे तहप्पगारा । [५४-११] लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में यदि एक-एक निगोदजीव को स्थापित किया जाए और उसका माप किया जाए तो ऐसे-ऐसे अनन्त लोकाकाश हो जाते हैं, (किन्तु लोकाकाश तो एक ही है, वह भी असंख्यातप्रदेशी है।) ॥ १०४॥ एक-एक लोकाकाश-प्रदेश में, प्रत्येक वनस्पतिकाय के एक-एक जीव को स्थापित किया जाए और उन्हें मापा जाए तो ऐसे-ऐसे असंख्यातलोकाश हो जाते हैं ॥ १०५ ॥ प्रत्येक वनस्पतिकाय के पर्याप्तक जीव घनीकृत प्रतर के असंख्यात-भाग मात्र (अर्थात्-लोक