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________________ [प्रज्ञापना सूत्र के असंख्यातवें भाग में जितने आकाशप्रदेश हैं, उतने) होते हैं। तथा अपर्याप्तक प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीवों का प्रमाण असंख्यात लोक के बराबर है, और साधारण जीवों का परिमाण अनन्तलोक के बराबर है ॥ १०६॥ [प्रक्षिप्त गाथार्थ] "इन (पूर्वोक्त) शरीरों के द्वारा स्पष्टरूप से उन बादरनिगोद जीवों की प्ररूपणा की गई है। सूक्ष्म निगोदजीव केवल आज्ञाग्राह्य (तीर्थकरवचनों द्वारा ही ज्ञेय) हैं। क्योंकि ये (सूक्ष्मनिगोद जीव) आँखों से दिखाई नहीं देते ॥१॥" अन्य जो भी इस प्रकार की (न कही गई) वनस्पतियां हों, (उन्हें साधारण या प्रत्येक वनस्पतिकाय में लक्षणानुसार यथायोग्य समझ लेनी चाहिए।) ५५. [१] ते समासओ दुविहा पण्णता । तं जहा-पज्जत्तगा य अपजत्तगा य । [५५-१] वे (पूर्वोक्त सभी प्रकार के वनस्पतिकाय जीव) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-पर्याप्तक और अपर्याप्तक । [२] तत्थ णं जे ते अपजत्तगा ते णं असंपत्ता । [५५-२] उनमें से जो अपर्याप्तक हैं, वे असम्प्रापत (अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं किये ___ [३] तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा तेसिं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई, संखेजाइं जोणिप्पमुहसयसहस्साइं । पजत्तगणिस्साए अपजत्तगा वक्कमंति-जत्थ एगो तत्थ सिय संखेजा सिय असंखेज्जा सिय अणंता। एएसि णं इमाओ गाहाओ अणुगंतव्वाओ। तं जहा कंदा य १ कंदमूला य २ रुक्खमूला इ ३ यावरे । गुच्छा य ४ गुम्म ५ वल्ली य ६ वेणुयाणि ७ तणाणि य ८ ॥ १०७॥ पउमुप्पल ९-१० संघाडे ११ हढे य १२ सेवाल १३ किण्हए १४ पणए १५ । अवए य १६ कच्छ १७ भाणी १८ कंडुक्केक्कणवीसइमे १९ ॥ १०८॥ तय-छल्लि-पवालेसु य पत्त-पुष्फ-फलेसु य । मूलऽग्ग-मज्झ-बीएसु जोणी कस्स य कित्तिया ॥ १०९॥ से त्तं साहारणसरीरबादरवणस्सइकाइया । से त्तं बादरवणस्सइकाइया । सेत्तं वणस्सइकाइया। से त्तं एगिंदिया । ___ [५५-३] उनमें से जो पर्याप्तक हैं, उनके वर्ण की अपेक्षा से, गन्ध की अपेक्षा से, रस की अपेक्षा से और स्पर्श की अपेक्षा से हजारों प्रकार (विधान) हो जाते हैं। उनके संख्यात लाख योनिप्रमुख होते हैं। पर्याप्तकों के आश्रय से अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं। जहाँ एक (बादर) पर्याप्तक जीव होता है, वहां (नियम से उसके आश्रय से) कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त (प्रत्येक) अपर्याप्तक जीव उत्पन्न होते हैं। (साधारण जीव तो नियम से अनन्त ही उत्पन्न होते हैं)।
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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