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प्रथम प्रज्ञापनापद]
५२. से किं तं कुहणा?
कुहणा अणेगविहा पण्णत्ता। तं जहा—आए काए कुहणे कुणक्के दव्वहलिया सप्काए' सज्जाए सित्ताए वंसी णाहिया कुरए, जे यावऽण्णे तहप्पगारा। से तं कुहणा।।
[५२ प्र.] वे कुहण वनस्पतियां किस प्रकार की हैं ?
[५२ उ.] कुहण वनस्पतियां अनेक प्रकार की कही गई हैं। वे इस प्रकार - आय, काय, कुहण, कुनक्क, द्रव्यहलिका, शफाय, सद्यात (स्वाध्याय?), सित्राक (छत्रोक) और वंशी, नाहिता, कुरक (वशीन, हिताकुरक)। इसी प्रकार की जो अन्य वनस्पतियां उन सबको कुहण के अन्तर्गत समझना चाहिए। यह हुआ कुहण वनस्पतियों का वर्णन। ५३. णाणाविहसंठाणा रुक्खाणं एगजीविया पत्ता।
खंधो वि एगजीवो ताल-सरल-नालिएरीणं॥४४॥ जह सगलसरिसवाणं सिलेसमिस्साण वट्टिया वट्टी। पत्तेयसरीराणं तह होति सरीरसंघाया॥ ४५ ॥ जह वा तिलपप्पडिया बहुएहि तिलेहि संहता संती। पत्ते यसरीराणं तह होंति सरीरसंघाया॥४६॥
से त्तं पत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइया । [५३ गाथार्थ-] वृक्षों (उपलक्षण से गुच्छ, गुल्म आदि) की आकृतियां नाना प्रकार की होती हैं। इनके पत्ते एकजीवक (एक जीव से अधिष्ठित) होते हैं, और स्कन्ध भी एक जीव वाला होता है। (यथा-) ताल, सरल, नारिकेल वृक्षों के पत्ते और स्कन्ध, एक-एक जीव वाले होते हैं ॥ ४४ ॥ जैसे श्लेष द्रव्य से मिश्रित किये हुए समस्त सर्षपों (सरसों के दानों) की वट्टी (में सरसों के दाने पृथक्पृथक् होते हुए भी) एकरूप प्रतीत होती हैं, वैसे ही (रागद्वेष से उपचित विशिष्टकर्मश्लेष से) एकत्र हुए प्रत्येकशरीरी जीवों के (शरीर भिन्न होते हुए भी) शरीरसंघात रूप होते हैं ॥ ४५ ॥ जैसे तिलपपड़ी (तिलपट्टी) में (प्रत्येक तिल अलग-अलग प्रतीत होते हुए भी) बहुत-से तिलों के संहत (एकत्र) होने पर होती हैं, वैसे ही प्रत्येकशरीरी जीवों के शरीरसंघात होते हैं ॥ ४६ ॥
इस प्रकार उन (पूर्वोक्त) प्रत्येकशरीर बादरवनस्पतिकायिक जीवों की प्रज्ञापना पूर्ण हुई। ५४. [१] से किं तं साहारणसरीरबादरवणस्सइकाइया ?
साहारणसरीरबादरवणस्सइकाइया अणेगविहा पण्णत्ता। तं जहाअवए पणए सेवाले लोहिणी रेमिहू त्थिहू स्थिभगा।
असकण्णी सीहकण्णी सिउंढि तत्तो मुसुंढी य॥४७॥ पाठान्तर–१ सम्झाए छत्तोए। २ वंसीण हिताकुरए। ३ मिहुत्थ हुत्थिभागा य।