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[प्रज्ञापना सूत्र इसी प्रकार के अन्य जितने भी वृक्ष हों, (जो विभिन्न देशों में उत्पन्न होते हैं तथा जिनके फल में एक ही गुठली हो; उन सबको एकास्थिक ही समझना चाहिए।) ॥ १५॥
इन (एकास्थिक वृक्षों) के मूल असंख्यात जीवों वाले होते हैं, तथा कन्द भी, स्कन्ध भी त्वचा (छाल) भी, शाखा (साल) भी और प्रवाल (कोंपल) भी (असंख्यात जीवों वाले होते हैं), किन्तु इनके पत्ते प्रत्येक जीव (एक-एक पत्ते में एक-एक जीव) वाले होते हैं। इनके फल एकास्थिक (एक ही गुठली वाले ) होते हैं। यह हुआ—उस (पूर्वोक्त) एकास्थिक वृक्ष का वर्णन।
४१. से किं तं बहुबीयगा ? बहुबीयगा अणेगविहा पण्णत्ता। तं जहा
अत्थिय तिंदु कविढे अंबाडग माउलिंग बिल्ले य। आमलग फणस दाडिम आसोत्थे उंबर वडे य॥ १६॥ णग्गोह णंदिरुक्खे पिप्परि सयरी पिलुक्खरुक्खे य। काउंबरि कुत्थंभरि बोधव्वा देवदाली य॥ १७॥ तिलिए लउए छत्तोह सिरीसे सत्तिवण्ण दहिवन्ने।
लोद्ध धव चंदणऽज्जुण णीमे कुडए कयंबे य॥ १८॥ ये यावऽण्णे तहप्पगारा। एएसि णं मूला वि असंखेज्जजीविया, कंदा वि खंधा वि तया वि साला वि पवाला वि। पत्ता पत्तेयजीविया। पुप्फा अणेगजीविया। फला बहुबीया। से तं बहुबीयगा से तं रुक्खा ।
[४१ प्र.] और वे (पूर्वोक्त) बहुबीजक वृक्ष किस प्रकार के हैं ? [४१-२] बहुबीजक वृक्ष अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार से हैं
[गाथार्थ-] अस्थिक, तेन्दु (तिन्दुक), कपित्थ (कवीठ), अम्बाडग, मातुलिंग (बिजौरा), बिल्व (बेल), आमलक (आँवला), पनस (अनन्नास) दाड़िम (अनार) अश्वत्थ (पीपल), उदुम्बर (गुल्लर), वट (बड़) , न्यगोध (बड़ा बड़), ॥ १६॥ ____ नन्दिवृक्ष, पिप्पली (पीपल), शतरी (शतावरी), प्लक्षवृक्ष, कादुम्बरी, कस्तुम्भरी और देवदाली (इन्हें बहुबीजक) जानना चाहिए ॥ १७ ॥
तिलक लवक (लकुच—लीची), छत्रोपक, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण, लोध्र, धव, चन्दन, अर्जुन, नीप, कुरज (कुटक) और कदम्ब ॥ १८॥
इस प्रकार के और भी जितने वृक्ष हैं, (जिनके फल में बहुत बीज हों; वे सब बहुबीजक वृक्ष समझने चाहिये।)
इन (बहुबीजक वृक्षों) के मूल असंख्य जीवों वाले होते हैं। इनके कंद, स्कन्ध, त्वचा (छाल), शाखा और प्रवाल भी (असंख्यात जीवात्मक होते हैं) इनके पत्ते प्रत्येक जीवात्मक (प्रत्येक पत्ते में