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प्रथम प्रज्ञापनापद] सर्वत्र व्याप्त हो जाती है। बादरपृथ्वीकायिक नियत-नियत स्थानों पर लोकाकाश में होते हैं। यह द्वितीयपद में बताया जाएगा।
सूक्ष्मपृथ्वीकायिकों के पर्याप्तक-अपर्याप्तक की व्याख्या – जिन जीवों की पर्याप्तियाँ पूर्ण हो चुकी हों वे पर्याप्त या पर्याप्तक कहलाते हैं । जो जीव अपने योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण न कर सके हों, वे अपर्याप्त या अपर्याप्तक कहलाते हैं। पर्याप्त और अपर्याप्त के प्रत्येक दो-दो भेद होते हैं—लब्धिपर्याप्त और करण-पर्याप्त, तथा लब्धि-अपर्याप्तक और करण-अपर्याप्त। जो जीव अपर्याप्त रह कर ही मर जाते हैं, वे लब्धि-अपर्याप्त और जिनकी पर्याप्तियाँ अभी पूरी नहीं हुई हैं, किन्तु पूरी होंगी, वे करण-अपर्याप्त कहलाते हैं । पर्याप्ति—पर्याप्ति आत्मा की एक विशिष्ट शक्ति की परिपूर्णता है, जिसके द्वारा आत्मा आहार, शरीर आदि के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है और उन्हें आहार, शरीर आदि के रूप में परिणत करता है। वह पर्याप्तिरूप शक्ति पुद्गलों के उपचय से उत्पन्न होती है। तात्पर्य यह है कि उत्पत्तिदेश में आए हुए नवीन आत्मा ने पहले जिन पुद्गलों को ग्रहण किया, उनको तथा प्रतिसमय ग्रहण किये जा रहे अन्य पुद्गलों को, एवं उनके सम्पर्क से जो तद्रूप परिणत हो गए हैं, उनको आहार, शरीर, इन्द्रिय आदि के रूप में जिस शक्ति के द्वारा परिणत किया जाता है, उस शक्ति की पूर्णता पर्याप्ति कहलाती है।
पर्याप्ति छह हैं-(१) आहारपर्याप्ति, (२) शरीरपर्याप्ति, (३) इन्द्रियपर्याप्ति, (४) श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, (५) भाषापर्याप्ति और (६) मनः पर्याप्ति। जिस शक्ति द्वारा जीव बाह्य आहार (आहारयोग्य पुद्गलों) को लेकर खल और रस के रूप में परिणत करता है, वह आहार-पर्याप्ति है। जिस शक्ति के द्वारा रसीभूत (रसरूप-परिणत) आहार (आहारयोग्य पुद्गलों) को रस, रक्त, मांस, मेद, हड्डी, मज्जा और शुक्र, इन सात धातुओं के रूप में परिणत किया जाता है, वह शरीरपर्याप्ति है। जिस शक्ति के द्वारा धातुरूप में परिणमित आहार पुद्गलों को इन्द्रियरूप में परिणत किया जाता है , वह इन्द्रियपर्याप्ति है। इसे दूसरी तरह से यों भी समझा जा सकता है—पाँचों इन्द्रियों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके अनाभोगनिर्वर्तित (अनजाने ही निष्पन्न) वीर्य के द्वारा इन्द्रियरूप में परिणत करने वाली शक्ति इन्द्रियपर्याप्ति है। जिस शक्ति के द्वारा (श्वास तथा उच्छ्वास के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके, उन्हें (श्वास एवं) उच्छ्वासरूप परिणत करके और फिर उनका आलम्बन लेकर छोड़ा जाता है, वह (श्वास) उच्छ्वास-पर्याप्ति है। जिस शक्ति से भाषा-योग्य (भाषावर्गणा के) पुद्गलों को ग्रहण करके , उन्हें भाषारूप में परिणत करके, वचनयोग का आलम्बन लेकर छोड़ा जाता है, वह भाषापर्याप्ति है। जिस शक्ति के द्वारा मन के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके मन के रूप में परिणत करके, मनोयोग का आलम्बन लेकर छोड़ा जाता है, वह मनःपर्याप्ति है। इन छह पर्याप्तियों में १. (क) प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक २४-२५
(ख) उत्तराध्ययनसूत्र,अ. ३६- 'सुहमा सव्वलोगंमि।'