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________________ ४४ [प्रज्ञापना सूत्र इनके अतिरिक्त जो अन्य भी तथा प्रकार के (वैसे) (पद्मराग आदि मणिभेद हैं, वे भी खर बादरपृथ्वीकायिक समझने चाहिए।) २५. [१] ते समासतो दुविहा पनत्ता। तं जहा—पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य। [२५-१] वे (पूर्वोक्त सामान्य बादरपृथ्वीकायिक) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं—पर्याप्तक और अपर्याप्तक। [२] तत्थ णं जे ते अपजत्तगा ते णं असंपत्ता । [२५-२] उनमें से जो अपर्याप्तक हैं, वे (स्वयोग्य पर्याप्तियों को) असम्प्राप्त होते हैं । [३] तत्थ णं जे ते पजत्तगा एतेसि णं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई, संखेज्जाइं जोणिप्पमुहसतसहस्साइं। पजत्तगणिस्साए अपज्जत्तगा वक्कमंति-जत्थ एगो तत्थ णियमा असंखिज्जा। से त्तं खरबादरपुढविकाइया। से त्तं बादरपुढविकाइया। से तं पुढविकाइया। __ [२५-३] उनमें से जो पर्याप्तक हैं, इनके वर्णादेश (वर्ण की अपेक्षा) से, गन्ध की अपेक्षा से, रस की अपेक्षा से और स्पर्श की अपेक्षा से हजारों सहस्रशः भेद (विधान) हैं। (उनके) संख्यात लाख योनिप्रमुख (योनिद्वार) हैं। पर्याप्तकों के निश्राय (आश्रय) में, अपर्याप्तक (आकर) उत्पन्न होते हैं। जहाँ एक (पर्याप्तक) होता है, वहां (उसके आश्रय से) नियम से असंख्यात अपर्याप्तक (उत्पन्न होते हैं।) यह हुआ—वह (पूर्वोक्त) खर बादर पृथ्वीकायिकों का निरूपण। (उसके साथ ही) बादरपृथ्वीकायिकों का वर्णन पूर्ण हुआ। (इसके पूर्ण होते ही) पृथ्वीकायिकों की प्ररूपणा समाप्त हुई। विवेचन—पृथ्वीकायिक जीवों की प्रज्ञापना—प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. २०से २५ तक में) पृथ्वीकायिक जीवों के मुख्य दो भेदों तथा उनके अवान्तर भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा की गई है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक और बादर पृथ्वीकायिक की व्याख्या-जिन जीवों को सूक्ष्मनामकर्म का उदय हो, वे सूक्ष्म कहलाते हैं। ऐसे पृथ्वीकायिक जीव सूक्ष्मपृथ्वीकायिक हैं। जिनको बादरनामकर्म का उदय हो, उन्हें बादर कहते हैं। ऐसे पृथ्वीकायिक बादरपृथ्वीकायिक कहलाते हैं। बेर और आंवले में जैसी सापेक्ष सूक्ष्मता और बादरता है, वैसी सूक्ष्मता और बादरता यहां नहीं समझनी चाहिए। यहां तो (नाम-) कर्मोदय के निमित्त से ही सूक्ष्म और बादर समझना चाहिए। मूल में 'च' शब्द सूक्ष्म और बादर के अनेक अवान्तरभेदों, जैसे—पर्याप्त और अपर्याप्त आदि भेदों तथा शर्करा, बालुका आदि उपभेदों को सूचित करने के लिए प्रयुक्त किया गया है। 'सूक्ष्म सर्वलोक में है' उत्तराध्ययन सूत्र की इस उक्ति के अनुसार सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव समग्र लोक में ऐसे ठसाठस भरे हुए हैं, जैसे किसी पेटी में सुगन्धित पदार्थ डाल देने पर उसकी महक उसमें
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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