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________________ [ प्रज्ञापना सूत्र ४६ से एकेन्द्रिय में चार, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय में पांच और संज्ञी पंचेन्द्रिय में छहों पर्याप्तियाँ होती हैं। जीव अपनी उत्पत्ति (जन्म) के प्रथम समय में ही, अपने योग्य सम्भावित पर्याप्तियों को एक साथ निष्पन्न करना प्रारम्भ कर देता है। किन्तु वे ( पर्याप्तियाँ) क्रमश: पूर्ण होती हैं। जैसे— सर्वप्रथम आहारपर्याप्ति, तत्पश्चात् शरीरपर्याप्ति, फिर इन्द्रियपर्याप्ति, तदनन्तर श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति, उसके बाद भाषापर्याप्ति और सबसे अन्त में मनःपर्याप्ति पूर्ण होती है । आहारपर्याप्ति प्रथम समय में ही निष्पन्न हो जाती है, शेष पर्याप्तियों के पूर्ण होने में प्रत्येक को अन्तर्मुहूर्त्त समय लग जाता है। किन्तु समग्र पर्याप्तियों के पूर्ण होने में भी अन्तर्मुहूर्त्तकाल ही लगता है क्योंकि अन्तर्मुहूर्त्त के अनेक विकल्प हैं। इस पर से सूक्ष्मपृथ्वीकायिक और बादरपृथ्वीकायिक दोनों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक का स्वरूप समझ लेना चाहिए । श्लक्ष्ण बादरपृथ्वीकायिक— पीसे हुए आटे समान मृदु (मुलायम) पृथ्वी श्लक्ष्ण कहलाती है । श्लक्ष्ण पृथिव्यात्मक जीव भी उपचार से श्लक्ष्ण कहलाते हैं। जिन बादरपृथ्वी के जीवों का शरीर श्लक्ष्ण— मृदु है, वे श्लक्ष्ण बादरपृथ्वीकयिक हैं । यह मुख्यतया सात प्रकार की होती है । उनमें से पाण्डुमृत्तिका का अर्थ यह भी है कि किसी देश में मिट्टी धूलिरूप में हो कर भी 'पाण्डु' नाम से प्रसिद्ध है । पनकमृत्तिका का अर्थ वृत्तिकार ने इस प्रकार किया है— नदी आदि में बाढ़ से डूबे हुए प्रदेश में नदी आदि के पूर चले जाने के बाद भूमि पर जो श्लक्ष्ण मृदुरूप पंक शेष रह जाता है, जिसे 'जलमल' भी कहते हैं, वही मृत्तिका है। खर बादरपृथ्वीकायिकों की व्याख्या - प्रस्तुत गाथाओं में खर बादरपृथ्वीकायिकों के ४० भेद बताए हैं, अन्त में यह भी कहा है कि ये और इसी प्रकार के अन्य जो भी पद्मरागादि रत्न हैं, वे सब इसी के अन्तर्गत समझने चाहिए। अपर्याप्तकों का स्वरूप- खर बादरपृथ्वीकायिक के पर्याप्तक और अपर्याप्तक जो दो भेद हैं, उनमें से अपर्याप्तक या तो अपनी पर्याप्तियों को पूर्णतया असंप्राप्त हैं अथवा उन्हें विशिष्ट वर्ण आदि प्राप्त नहीं हुए हैं। इस दृष्टि से उनके लिए यह नहीं कहा जा सकता है कि वे कृष्ण आदि वर्ण वाले हैं। शरीर आदि पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाने पर ही बादर जीवों में वर्ण आदि विभाग प्रकट होता है, अपूर्ण होने की स्थिति में नहीं । तथा वे अपर्याप्तक उच्छ्वास पर्याप्ति से अपर्याप्त रह कर ही मर जाते हैं, इसी कारण उनमें स्पष्टतर वर्णादि का विभाग सम्भव नहीं। इसी दृष्टि से उन्हें 'असम्प्राप्त' कहा है। पर्याप्तकों के वर्णादि के भेद से हजारों भेद – इनमें से जो पर्याप्तक हैं, जिनकी अपने योग्य चार पर्याप्तियां पूर्ण हो चुकी हैं, उनके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के भेद से हजारों भेद होते हैं। जैसे— वर्ण के ५, गन्ध के २, रस के ५ स्पर्श के ८ भेद होते हैं । फिर प्रत्येक वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श में १. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २५-२६ (ख) आहारपर्याप्ति के सम्बन्ध में सूक्ष्मचर्चा देखिये - प्रज्ञापना. २८ वां आहारपद २. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक २६
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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