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________________ [प्रज्ञापना सूत्र __परम्परासिद्ध-असंसार-समापनजीवों के प्रकार—इनके अनेक प्रकार हैं, इसलिए शास्त्रकार ने इनके प्रकारों की निश्चित संख्या नहीं दी है। अप्रथमसमयसिद्ध से लेकर अनन्तसमयसिद्ध तक के जीव परम्परासिद्ध की कोटि में हैं। अप्रथमसमयसिद्ध—जिन्हें सिद्ध हुए प्रथम समय न हो, अर्थात् जिन्हें सिद्ध हुए एक से अधिक समय हो चुके हों, वे अप्रथमसमयसिद्ध कहलाते हैं। अथवा जो परम्परसिद्धों में प्रथमसमयवर्ती हों वे प्रथमसमयसिद्ध होते हैं। इसी प्रकार तृतीय आदि समयों में द्वितीयसमयसिद्ध आदि कहलाते हैं। अथवा 'अप्रथमसमयसिद्ध' का कथन सामान्यरूप से किया गया है, आगे इसी के विषय में विशेषतः कहा गया है—द्विसमयसिद्ध, त्रिसमयसिद्ध, चतुःसमयसिद्ध आदि यावत् अनन्त समयसिद्ध तक अप्रथमसमयसिद्ध-परंपरासिद्ध समझने चाहिए। अथवा परम्परसिद्ध का अर्थ इस प्रकार से है जो किसी भी प्रथम समय में सिद्ध है, उससे एक समय पहले सिद्ध होने वाला 'पर' कहलाता है। परम्परसिद्ध का आशय यह है कि जिस समय में कोई जीव सिद्ध हुआ है, उससे पूर्ववर्ती समयों में जो जीव सिद्ध हुए हैं, वे सब उसकी अपेक्षा परम्परसिद्ध हैं। अनन्त अतीतकाल से सिद्ध होते आ रहे हैं, वे सब किसी भी विवक्षित प्रथम समय में सिद्ध होने वाले की अपेक्षा से परम्परसिद्ध हैं। ऐसे मुक्तात्मा परम्परसिद्ध असंसारसमापन्न जीव हैं। संसारसमापन्न-जीवप्रज्ञापना के पांच प्रकार १८. से किं तं संसारसमावण्णजीवपण्णवणा ? संसारसमावण्णजीवपण्णवणा पंचविहा पन्नत्ता। तं जहा-एगिदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा १ बेंदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा २ तेंदियसंसारसमावन्नजीवपण्णवणा ३ चउरेंदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा ४ पंचेंदियसंसारसमावनजीवपण्णवणा ५। [१८ प्र.] वह (पूर्वोक्त) संसारसमापन्नजीव-प्रज्ञापना क्या है ? [१८ उ.] संसारसमापन्न-जीवप्रज्ञापना पांच प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है- (१) एकेन्द्रिय संसारसमापन्न-जीवप्रज्ञापना, (२) द्वीन्द्रिय संसारसमापन्न-जीवप्रज्ञापना, (३)त्रीन्द्रिय संसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना, (४) चतुरिन्द्रिय संसारसमापन-जीवप्रज्ञापना और (५) पंचेन्द्रिय संसार-समापन-जीवप्रज्ञापना। विवेचन—संसारसमापन-जीवप्रज्ञापना के पांच प्रकार—संसारी जीवों की प्रज्ञापना के एकेन्द्रियादि पांच प्रकार क्रमशः इस सूत्र (सू. १८) में प्रतिपादित किये गए हैं। संसारी जीवों के पांच प्रकारों की व्याख्या-(१) एकेन्द्रिय-पृथ्वीकायादि स्पर्शनेन्द्रिय वाले जीव एकेन्द्रिय कहलाते हैं। (२) द्वीन्द्रिय-जिन जीवों के स्पर्शनेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय, ये दो इन्द्रियां होती हैं, वे द्वीन्द्रिय होते हैं। जैसे—शंख, सीप, लट, गिंडोला आदि (३) त्रीन्द्रिय-जिन जीवों के १. प्रज्ञापनासूत्र मलय, वृत्ति, पत्रांक २३ तथा १८
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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