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________________ प्रथम प्रज्ञापनापद] तीन प्रकार का हो सकता है—वेद, शरीर की निष्पत्ति (रचना) और वेषभूषा। इन तीन प्रकार के लिंगों में से यहाँ स्त्री-शरीररचना से प्रयोजन है; स्त्रीवेद या स्त्रीवेशरूप स्त्रीलिंग से नहीं, क्योंकि स्त्रीवेद की विद्यमानता में सिद्धत्व प्राप्त नहीं हो सकता और वेश अप्रमाणिक है। अतः ऐसे स्त्रीलिंग में विद्यमान होते हुए जो जीव सिद्ध होते हैं, वे स्त्रीलिंगसिद्ध हैं। इस शास्त्रीय कथन से 'स्त्रियों को निर्वाण नहीं होता'; इस उक्ति का खण्डन हो जाता है। वास्तव में मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्ररूप है। यह रत्नत्रय पुरुषों की तरह स्त्रियों में भी हो सकता है। इसकी साधना में तथा प्रवचनार्थ में रुचि एवं श्रद्धा रखने में स्त्रीलिंग बाधक नहीं है। (९) पुरुषलिंगसिद्ध-पुरुष-शरीररचनारूप पुल्लिंग में स्थित होकर सिद्ध होते हैं, वे पुरुषलिंगसिद्ध कहलाते हैं। (१०) नपुंसकलिंगसिद्ध—जो जीव न तो स्त्री के और न ही पुरुष के, किन्तु नपुंसक के शरीर से सिद्ध होते हैं, वे नपुंसकलिंगसिद्ध कहलाते हैं। (११) स्वलिंगसिद्ध—जो स्वलिंग से अर्थात् रजोहरणादिरूप वेश में रहते हुए सिद्ध होते हैं। • (१२) अन्यलिंगसिद्ध—जो अन्यलिंग से, अर्थात्-परिव्राजक आदि से सम्बन्धित वल्कल (छाल) या काषायादि रंग के वस्त्र वाले द्रव्यलिंग में रहते हुए सिद्ध होते हैं। (१३) गृहिलिंगसिद्ध—जो गृहस्थ के लिंग (वेष) में रहते हुए सिद्ध होते हैं। वे गृहिलिंगसिद्ध होते हैं, जैसे—मरुदेवी आदि। (१४) एकसिद्ध-जो एक समय में अकेले ही सिद्ध होते हैं, वे एकसिद्ध हैं। (१५) अनेकसिद्ध-जो एक ही समय में एक से अधिक अनेक सिद्ध होते हैं, वे अनेकसिद्ध कहलाते हैं। सिद्धान्तानुसार एक समय में अधिक से अधिक १०८ जीव सिद्ध होते हैं। अनन्तर सिद्धों के उपाधि के भेद से ये १५ प्रकार कहे हैं। १. इत्थीए लिंगं इथिलिंगं उवलक्खणं ति वुत्तं भवइ। तं च तिविहं—वेदो सरीरनिवित्ती नेवत्थं च। इह सरीरनिव्वत्तीए अहिगारो, न वेय-नेवत्थेहि। -नन्दी, अध्ययन चूर्णि २. स्त्रीमुक्ति की विशेष चर्चा के लिए देखिये-प्रज्ञापना. म० वृत्ति, पत्रांक २० से २२ तक दिगम्बराचार्य नेमिचन्द्रकृत गोमट्टसार में देखिये—अडयाला पुंवेया, इत्थीवेया, हवंति चालीसा। वीस नपुंसकवेया, समएणेगेण सिझंति॥ ३. 'अनेकसिद्ध' का विस्तृत वर्णन देखें-प्रज्ञापना० म० वृत्ति, पत्रांक २२ बत्तीसा अडयाला सट्ठी बावत्तरी य बोद्धव्वा। चुलसीइ छउन्नइ उ दुरहियं अछुत्तरसयं च॥ ४. प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पत्रांक १९ से २२ तक
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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