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[प्रज्ञापना सूत्र निमित्तों के बिना ही, अपने जातिस्मरणादि ज्ञान से ही सम्बुद्ध हो जाते (बोध प्राप्त कर लेते) हैं, जबकि प्रत्येकबुद्ध वे कहलाते हैं, जो वृषभ, वृक्ष बादल आदि किसी भी बाह्य निमित्तकारण से प्रबुद्ध होते हैं। सुना जाता है कि करकण्डू आदि को वृषभादि बाह्यनिमित्त की प्रेक्षा से बोधि प्राप्त हुई थी। प्रत्येकबुद्ध बोधि प्राप्त करके नियमतः एकाकी (प्रत्येक) ही विचरते हैं, गच्छ (गण)- वासी साधुओं की तरह समूहबद्ध हो कर नहीं विचरण करते।
नन्दी-अध्ययन की चूर्णि में कहा है-स्वयंबुद्ध दो प्रकार के होते हैं—तीर्थकर और तीर्थकरभिन्न। तीर्थकर तो तीर्थकरसिद्ध की कोटि में सम्मिलित हैं। अतएव यहाँ तीर्थकर-भिन्न स्वयंबुद्ध ही समझना चाहिए। १ स्वयंबुद्धों के पात्रादि के भेद से बारह प्रकार की उपधि (उपकरण) होती है, जबकि प्रत्येकबुद्धों की जघन्य दो प्रकार की और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) नौ प्रकार की उपधि प्रावरण (वस्त्र) को छोड़ कर होती है। स्वयंबुद्धों के श्रुत (शास्त्र) पूर्वाधीत (पूर्वजन्मपठित) होता भी है, नहीं भी होता। अगर होता है तो देवता उन्हें लिंग (वेष) प्रदान करता है, अथवा वे गुरु के सान्निध्य में जाकर मुनिलिंग स्वीकार कर लेते हैं। यदि वे एकाकी विचरण करने में समर्थ हों और उनकी एकाकी-विचरण की इच्छा हो तो एकाकी विचरण करते हैं, नहीं तो गच्छवासी हो कर रहते हैं। यदि उनके श्रुत पूर्वाधीत न हो तो वे नियम से गुरु के निकट जा कर ही मुनिलिंग स्वीकार करते हैं और गच्छवासी हो कर ही रहते हैं। प्रत्येकबुद्धों के नियमतः श्रुत पूर्वाधीत होता है। वे जघन्यतः ग्यारह अंग और उत्कृष्टतः दस पूर्व से किञ्चित् कम पहले पढ़े हुए होते हैं। उन्हें देवता मुनिलिंग देता है, अथवा कदाचित् वे लिंगरहितं भी विचरते हैं।
___ (७) बुद्धबोधितसिद्ध—बुद्ध अर्थात् —बोधप्राप्त आचार्य, उनके द्वारा बोधित हो कर जो सिद्ध होते हैं वे बुद्धबोधितसिद्ध हैं।
(८) स्त्रीलिंगसिद्ध—इन पूर्वोक्त प्रकार के सिद्धों में से कई स्त्रीलिंगसिद्ध होते हैं। जिससे स्त्री की पहिचान हो वह स्त्री का लिंग-चिह्न स्त्रीलिंग कहलाता है। उपलक्षण से स्त्रीत्वद्योतक होने से वह १. ते दुविहा सयंबुद्धा-तित्थयरा तित्थयरवइरित्ता य, इह वइरित्तेहि अहिगारो। -नन्दी, अध्ययन चूर्णि २. पत्तेयं-बाह्यं वृषभादिकं कारणमभिसमीक्ष्य बुद्धाः, बहिष्प्रत्ययं प्रति बद्धानां च पत्तेयं नियमा विहारो जम्हा तम्हा
ते पत्तेयबुद्धा। पत्तेयबुद्धाणं जहन्नेणं दुविहो, उक्कोसेणं नवविहो नियमा उवही पाउरणवजो भवइ। सयंबुद्धस्स पुव्वाहीयं सुयं से हवइ वा न वा, जड़ से नत्थि तो लिंग नियमा गुरुसन्निहे पडिवजइ, जइ य एगविहार-विहरणसमत्थो इच्छा वा से तो एक्को चेव विहरइ, अन्यथा गच्छे विहरइ। पत्तेयबुद्धाणं पुव्वाहीयं सुयं नियमा हवइ, जहन्नेणं इक्कारस अंगा, उक्कोसेणं भिन्नदसपुव्वा। लिंगं च से देवया पयच्छइ, लिंगवजिओ वा हवइ।