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प्रथम प्रज्ञापनापद] संसारपरिभ्रमण न हो, अर्थात् —मोक्ष। उस मोक्ष को प्राप्त, समस्त कर्मों से मुक्त, सिद्धिप्राप्त जीव असंसारसमापन्न जीव कहलाते हैं।
अनन्तरसिद्ध-असंसारसमापन्न जीव—जिन मुक्त जीवों के सिद्ध होने में अन्तर अर्थात् समय का व्यवधान न हो, वे अनन्तरसिद्ध होते हैं, अर्थात्-सिद्धत्व के प्रथम समय में विद्यमान । जिन जीवों को सिद्ध हुए प्रथम ही समय हो, वे अनन्तरसिद्ध हैं।
अनन्तरसिद्ध-असंसारसमापन्न जीवों के १५ भेदों की व्याख्या () तीर्थसिद्ध—जिनके आश्रय से संसार-सागर को तिरा जाए-पार किया जाय, उसे तीर्थ कहते हैं। ऐसा तीर्थ वह प्रवचन है, जो समस्त जीव-अजीब आदि पदार्थों का यथार्थरूप से प्ररूपक है और परमगुरु–सर्वज्ञ द्वारा प्रणीत (प्रतिपादित) है। वह तीर्थ निराधार नहीं होता। अतः चतुर्विध संघ अथवा प्रथम गणधर को भी तीर्थ समझना चाहिए। आगम में कहा है-(प्र.) भगवन् ! तीर्थ को तीर्थ कहते हैं या तीर्थकर को तीर्थ कहते हैं? (उ.) गौतम! अरिहन्त भगवान् (नियम से) तीर्थकर होते हैं; तीर्थ तो चातुर्वर्ण्य श्रमणसंघ (साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविक रूप) अथवा प्रथम गणधर है। इस प्रकार के तीर्थ की स्थापना होने पर जो जीव सिद्ध होते हैं, वे तीर्थसिद्ध कहलाते हैं।
(२) अतीर्थसिद्ध तीर्थ का अभाव अतीर्थ कहलाता है। तीर्थ का अभाव दो प्रकार से होता है-या तो तीर्थ की स्थापना ही न हुई हो, अथवा स्थापना होने के पश्चात् कालान्तर में उसका विच्छेद हो गया हो। ऐसे अतीर्थकाल में जिन्होंने सिद्धि प्राप्त की हो, वे अतीर्थसिद्ध कहलाते हैं। तीर्थ की स्थापना के अभाव में (पूर्व ही) मरुदेवी आदि सिद्ध हुई हैं। मरुदेवी आदि के सिद्धिगमनकाल में तीर्थ की स्थापना नहीं हुई थी। तथा सुविधिनाथ आदि तीर्थंकरों के बीच के समय में तीर्थ का विच्छेद होने से तीर्थव्यवच्छेद-सिद्ध कहलाये। ये दोनों ही प्रकार के सिद्ध अतीर्थसिद्ध हैं।
(३) तीर्थकरसिद्ध-जो तीर्थकर होकर सिद्ध होते हैं, वे तीर्थकरसिद्ध कहलाते हैं। जैसेइस अवसर्पिणीकाल में ऋषभदेव से लेकर श्री वर्धमान स्वामी तक चौबीस तीर्थंकर, तीर्थंकर होकर सिद्ध हुए।
(४) अतीर्थंकरसिद्ध—जो सामान्य केवली होकर सिद्ध होते हैं, वे अतीर्थंकरसिद्ध कहलाते
(५) स्वयंबुद्धसिद्ध–जो परोपदेश के बिना, स्वयं ही सम्बुद्ध हो (संसारस्वरूप समझ) कर सिद्ध होते हैं।
(६) प्रत्येकबुद्धसिद्ध-जो प्रत्येकबुद्ध होकर सिद्ध होते हैं। यद्यपि स्वयंबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध दोनों ही परोपदेश के बिना ही सिद्ध होते हैं, तथापि इन दोनों में अन्तर यह है कि स्वयम्बुद्ध बाह्य१. प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति पत्रांक १८ २. (प्र.) तित्थं भंते! तिर्थ, तित्थकरे तित्थं ? - (उ.) गोयमा! अरिहा ताव (नियमा) तित्थकरे, तित्थं पुण चाउवण्णो समणसंघो पढमगणहरो वा।