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________________ मंगलाचरण] स्थिर करने के लिये मध्यमंगल तथा शिष्यपरम्परा से शास्त्र की विचारधारा को सतत चालू रखने के लिए अन्तिम मंगलाचार करना चाहिए। तदनुसार प्रस्तुत में 'ववगयजरामरणभए.' आदि तीन गाथाओं द्वारा शास्त्रकार ने आदिमंगल, 'कइविहे णं उवओगे पन्नत्ते ?' इत्यादि ज्ञानात्मक सूत्रपाठ मध्यमंगल एवं....' सुही सुहं पत्ता' इत्यादि सिद्धाधिकारात्मक सूत्र-पाठ द्वारा अन्तमंगल प्रस्तुत किया है। ___अनुबन्ध चतुष्टय—शास्त्र के प्रारम्भ में समस्त भव्यों एवं बुद्धिमानों को शास्त्र में प्रवृत्त करने के उद्देश्य से चार अनुबन्ध अवश्य बताने चाहिए। वे चार अनुबन्ध इस प्रकार हैं-(१) विषय, (२) अधिकारी, (३) सम्बन्ध और (४) प्रयोजन। मंगलाचरणीय गाथात्रय से ही प्रस्तुत शास्त्र के पूर्वोक्त चारों अनुबन्ध ध्वनित होते हैं। अभिधेय विषय-प्रस्तुत शास्त्र का अभिधेय विषय-श्रुतनिधिरूप सर्वभावों की प्रज्ञापना-प्ररूपणा करना है। 'प्रज्ञापना' शब्द का अर्थ ही स्पष्ट रूप से यह प्रकट कर रहा है कि 'जिसके द्वारा जीव, अजीव आदि तत्त्व प्रकर्ष रूप से ज्ञापित किये जाएँ उसे प्रज्ञापना—कहते हैं। यहाँ 'प्रकर्षरूप से' का तात्पर्य है–समस्त कुतीर्थिकों के प्रवर्तक जिसकी प्ररूपणा करने में असमर्थ हैं, ऐसे वस्तुस्वरूप का यथावस्थितरूप से निरूपण करना। ज्ञापित करने का अर्थ है-शिष्य की बुद्धि में आरोपित कर देनाजमा. देना। अधिकारीइस शास्त्र के पठन-पाठन का अधिकारी वह है, जो सर्वज्ञवचनों पर श्रद्धा रखता हो, शास्त्रज्ञान में जिसकी रुचि हो, जिसे शास्त्रज्ञान एवं तत्त्वज्ञान के द्वारा अपूर्व आनन्द की अनुभूति हो। ऐसा अधिकारी महाव्रती भी हो सकता है, अणुव्रती भी और सम्यग्दृष्टिसम्पन्न भी। जैसे कि कहा गया है—जो मध्यस्थ हो, बुद्धिमान हो और तत्त्वज्ञानार्थी हो, वह श्रोता (वक्ता) पात्र है। सम्बन्ध–सम्बन्ध प्रस्तुत शास्त्र में दो प्रकार का है – (१) उपायोपेयभाव-सम्बन्ध और (२) गुरुपर्वक्रमरूप-सम्बन्ध। पहला सम्बन्ध तर्क का अनुसरण करने वालों की अपेक्षा से है। वचनरूप से प्राप्त प्रकरण उपाय है और उसका परिज्ञान उपेय है। गुरुपर्वक्रमरूप-सम्बन्ध केवल श्रद्धानुसारी जनों १. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलयगिरिवृत्ति, पत्रांक २ (ख) प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थं, फलादित्रितयं स्फुटम्। मंगलं चैव शास्त्रादौ, वाच्यमिष्टार्थसिद्धये ॥१॥ (ग) तं मंगलमाईए मज्झे पजंतए य सत्थस्स। पढमं सत्थत्थाविग्धपारगमणाय निद्दिट्ठ॥१॥ तस्सेव य थेज्जत्थं मज्झिमयं अंतिमपि तस्सेव। अव्वोच्छित्तिनिमित्तं सिस्सपसिस्साइवंसस्स॥२॥ २. (क) 'प्रवृत्तिप्रयोजकज्ञानविषयत्वमनुबन्धत्वम्, विषयश्चाधिकारी च सम्बन्धश्च प्रयोजनमिति अनुबन्धचतुष्टयम्।' (ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक. १-२ ३. प्रकर्षण-नि:शेषकुतीर्थितीर्थकरासाध्येन यथावस्थितस्वरूपनिरूपणलक्षणेनज्ञाप्यन्ते-शिष्यबुद्धावारोप्यन्ते जीवाजीवादयः पदार्था अनयेति प्रज्ञापना। -प्रज्ञापना म. वृत्ति, पत्रांक १ ४. मध्यस्थो बद्धिमानर्थी श्रोता पात्रमिति स्मृतः।-प्रज्ञापना म. वृत्ति, पत्रांक ७
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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