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________________ १२ की अपेक्षा से है, जिसे शास्त्रकार स्वयं आगे बताएँगे। प्रयोजन—प्रस्तुत शास्त्र का प्रयोजन दो प्रकार का है— पर (अनन्तर) प्रयोजन और अपर (परम्पर) प्रयोजन। ये दोनों प्रयोजन भी दो-दो प्रकार के हैं – (१) शास्त्रकर्ता का पर- अपर - प्रयोजन और (२) श्रोता का पर- अपर - प्रयोजन । [ प्रज्ञापना सूत्र शास्त्रकर्ता का प्रयोजन —- द्रव्यास्तिकनय की दृष्टि से विचार करने पर 'आगम' नित्य होने से उसका कोई कर्ता है ही नहीं। जैसा कि कहा गया है – 'यह द्वाद्वशांगी कभी नहीं थी, ऐसा नहीं है, कभी नहीं है, ऐसा भी नहीं है और कभी नहीं होगी, ऐसा भी नहीं है। यह ध्रुव, नित्य और शाश्वत है' इत्यादि। पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से विचार करने पर आगम अनित्य है, अतएव उसका कर्ता भी अवश्य होता है। वस्तुतः तात्त्विक दृष्टि से विचार करने पर आगम सूत्र, अर्थ और तदुभयरूप है । अतः अर्थ की अपेक्षा से नित्य और सूत्र की अपेक्षा से अनित्य होने से शास्त्र का कर्ता कथंचित् सिद्ध होता है । शास्त्रकर्ता का इस शास्त्रप्ररूपणा से अनन्तरप्रयोजन है— प्राणियों पर अनुग्रह करना और परम्परप्रयोजन है— मोक्षप्राप्ति । कहा भी है— 'जो व्यक्ति सर्वज्ञोक्त उपदेश द्वारा दुःखसंतप्त जीवों पर अनुग्रह करता है, वह शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करता है।' कोई कह सकता है कि अर्थरूप आगम के प्रतिपादक अर्ह (तीर्थंकर) भगवान् तो कृतकृत्य हो चुके हैं, उन्हें शास्त्र - प्रतिपादन से क्या प्रयोजन है? बिना प्रयोजन के अर्थरूप आगम का प्रतिपादन करना वृथा है । इस शंका का समाधान यह है कि ऐसी बात नहीं है.। तीर्थंकर भगवान् तीर्थंकरनामकर्म के विपाकोदयवश अर्थागम का प्रतिपादन करते हैं । आवश्यकनिर्युक्ति इस विषय में एक प्रश्नोत्तरी द्वारा प्रकाश डाला गया है - ( प्र . ) 'वह ( तीर्थकर नामकर्म ) किस प्रकार से वेदन किया ( भोगा) जाता है ?' (उ. ) ' अग्लान भाव से धर्मदेशना देने से (उसका वेदन होता है ) । श्रोताओं का प्रयोजन— श्रोताओं का साक्षात् (अनन्तरप्रयोजन है— विवक्षित अध्ययन के अर्थ का परिज्ञान होना । अर्थात् आगम श्रवण करते ही उसके अभीष्ट अर्थ का ज्ञान श्रोता को हो जाता है । परम्पराप्रयोजन है— मोक्षप्राप्ति | जब श्रोता विवक्षित अध्ययन का अर्थ समीचीनरूप से जान लेता है, हृदयंगम कर लेता है, तो संसार से उसे विरक्ति हो जाती है । विरक्त होकर भवभ्रमण से छुटकारा पाने हेतु वह आगमानुसार संयम मार्ग में सम्यक् प्रवृत्ति करता है । संयम में प्रकर्षरूप से प्रवृत्ति और संसार से विरक्ति के कारण श्रोता के समस्त कर्मों का क्षय हो जाने पर मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है । कहा भी हैवस्तुस्वरूप के यथार्थ परिज्ञान से संसार से विरक्त जन (मोक्षानुसारी) क्रिया में संलग्न होकर निर्विघ्नता से परमगति (मोक्ष) प्राप्त कर लेते हैं । ३ १. नन्दीसूत्र, श्रुतज्ञान-प्रकरण २. 'तं च कहं वेइज्जइ ? अगिलाए धम्मदेसणाए उ' । ३. सम्यग्भावपरिज्ञानाद् विरक्ता भवतो जनाः । क्रियासक्ता ह्यबिघ्नेन गच्छन्ति परमां गतिम् ॥ आ. निर्युक्
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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