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पण्णवणासुत्तं
प्रज्ञापना-सूत्र
मंगलाचरण और शास्त्र सम्बन्धी चार अनुबन्ध
[नमो अरिहंताणं। नमो सिद्धाणं। नमो आयरियाणं।
नमो उवज्झायाणं। नमो लोए सव्वसाहूणं॥] १. ववगयजर-मरणभए सिद्धे अभिवंदिऊण तिविहेणं।
वंदामि जिणवरिंदं तेलोक्क गुरुं महावीरं ॥१॥ सुयरयणनिहाणं जिणवरेणं भवियजणणिव्वुइकरेणं। उवदंसिया भयवया पण्णवणा सव्वभावाणं ॥२॥ अज्झयणमिणं चित्तं सुयरयणं दिट्ठिवायणीसंदं।
जह वणियं भगवया अहमवि तह वण्णइस्सामि॥ ३॥ अरिहन्तों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो, लोक में (विद्यमान) सर्व-साधुओं को नमस्कार हो। - [१. गाथाओं का अर्थ-] जरा, मृत्यु, और भय से रहित सिद्धों को त्रिविध (मन, वचन और काय से) अभिवन्दन करके त्रैलोक्यगुरु जिनवरेन्द्र श्री भगवान् महावीर को वन्दन करता हूँ॥ १॥
भव्यजनों को निवृत्ति (निर्वाण या उसके कारणरूप रत्नत्रय का उपदेश) करने वाले जिनेश्वर भगवान् ने श्रुतरत्ननिधिरूप सर्वभावों की प्रज्ञापना का उपदेश दिया है॥ २॥
दृष्टिवाद के निःस्यन्द-(निष्कर्ष = निचोड़) रूप विचित्र श्रुतरत्नरूप इस प्रज्ञापना-अध्ययन का श्रीतीर्थकर भगवान् ने जैसा वर्णन किया है, मैं (श्यामार्य) भी उसी प्रकार वर्णन करूंगा॥ ३॥
विवेचन मंगलाचरण और शास्त्रसम्बन्धी चार अनुबन्ध-प्रस्तुत सूत्र में तीन गाथाओं द्वारा प्रज्ञापनासूत्र के रचयिता श्री श्यामार्यवाचक शास्त्र के प्रारम्भ में विघ्नशान्ति-हेतु मंगलाचरण तथा प्रस्तुत शास्त्र से सम्बन्धित अनुबन्धचतुष्टय प्रस्तुत करते हैं। ___ मंगलाचरण का औचित्य- यह उपांग समस्त जीव, अजीव आदि पदार्थों की शिक्षा (ज्ञान) देने वाला होने से शास्त्र है और शास्त्र के प्रारम्भ में विचारक को शास्त्र में प्रवृत्त करने तथा विघ्नोपशान्ति के हेतु तीन प्रयोजनों की दृष्टि से तीन मंगलाचरण करने चाहिए। शिष्टजनों का यह आचार है कि निर्विघ्नता से शास्त्र के पारगमन के लिए आदिमंगल, ग्रहण किये हुए शास्त्रीय पदार्थ (प्ररूपण) को