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राजप्रश्नीयसूत्र
मंदक और रोचितावसान रूप चार प्रकार का संगीत (गाना) गाया।
१०९- तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारियाओ य चउव्विहं णट्टविहिं उवदंसंति, तं जहा—अंचियं-रिभियं-आरभडं-भसोलं च ।
१०९– तत्पश्चात् उन सभी देवकुमारों और देवकुमारियों ने अंचित, रिभित, आरभट एवं भसोल इन चार प्रकार की नृत्यविधियों को दिखाया।
११०– तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारियाओ च चउब्विहं अभिणयं अभिणएंति, तं जहा—दिलृतियं पाडिंतियं (पाडियंतियं) सामानाविणिवाइयं—अंतो-मज्झावसाणियं च ।
११०– तत्पश्चात् उन सभी देवकुमारों और देवकुमारियों ने चार प्रकार के अभिनय प्रदर्शित किये, यथा—दार्टान्तिक, प्रात्यंतिक, सामान्यतोविनिपातनिक और अन्तर्मध्यावसानिक (लोकमध्यावसानिक)।
विवेचन— सूत्र संख्या १०७-११० पर्यन्त नाटकों का प्रदर्शन करने के पश्चात् उपसंहार रूप चार प्रकार के वाद्यों को बजाने, संगीतों को गाने एवं नृत्यों और अभिनयों को करने का उल्लेख किया है।
वाद्यादि अभिनय पर्यन्त चार-चार प्रकारों को बतलाने का कारण यह है कि ये उन-उनके मूल हैं। अर्थात् वाद्यों, राग-रागनियों आदि के अलग-अलग नाम होने पर भी वे सभी मुख्य-गौण भाव से इन चार प्रकारों के ही विविध रूप हैं।
प्रस्तुत में तत आदि शब्दों के वाद्यों के उत्क्षिप्त आदि शब्दों से संगीत के और अंचित आदि शब्दों से नृत्य के चार-चार भेद और उनके सामान्य अर्थ तो समझ लिये जा सकते हैं तथा इसी प्रकार अभिनय के जो चार प्रकार बतलाये हैं उनमें से दृष्टन्तिक अभिनय किसी प्रकार के दृष्टान्त का अभिनय। प्रत्यन्त का अर्थ म्लेच्छदेश है ('प्रत्यन्तो म्लेच्छमण्डलः' अभिधान चिन्तामणि कोश ४, श्लोक १८)। भोट (भूटान) आदि देशों की म्लेच्छ देशों में गणना है। इन देशों के निवासियों और उनके आचरण अथवा किसी प्रसंग आदि का अभिनय प्रात्यंतिक अभिनय है। सामान्य प्रकार के अभिनय को सामान्यतोपनिपातनिक और लोक के मध्य या अन्त सम्बन्धी अभिनय को अन्तर्मध्यावसानिक अभिनय कहते हैं। यह अभिनय के प्रकारसूचक शब्दों का शब्दार्थमात्र है। परन्तु उन सभी के विशेष अर्थ को समझने के लिए संगीत तथा अभिनय विशारदों एवं नाट्यशास्त्र से जानकारी प्राप्त करना चाहिए।
१११– तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारियाओ य गोयमादियाणं समणाणं निग्गंथाणं दिव्वं देविड्डि दिव्वं देवजुतिं दिव्वं देवाणुभावं दिव्वं बत्तीसइबद्धं नाडयं उवदंसित्ता समणं भगवंतं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति, करित्ता वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसिता जेणेव सूरियाभे देवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सूरियाभं देवं करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धाति वद्धावित्ता एवं आणत्तियं पच्चप्पिणंति ।
१११– तत्पश्चात् उन सभी देवकुमारों और देवकुमारियों ने गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों को दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव प्रदर्शक बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्यविधियों को दिखाकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वन्दन-नमस्कार करने के पश्चात् जहां अपना अधिपति सूर्याभदेव था वहां आये। वहां आकर दोनों हाथ जोड़कर सिर पर आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके सूर्याभदेव