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________________ गौतमस्वामी की जिज्ञासा : भगवान् का समाधान को 'जय विजय हो' शब्दोच्चारणों से बधाया और बधाकर आज्ञा वापस सौंपी, अर्थात् निवेदन किया कि आपकी आज्ञा के अनुसार हम श्रमण भगवान् महावीर आदि के पास जाकर बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्यविधि दिखा आये हैं। ५९ ११२ – तए णं से सूरियाभे देवे तं दिव्वं देविडिं, दिव्वं देवजुई, दिव्वं देवाणुभावं पडिसाहरइ, पडिसाहरेत्ता खणेणं जाते एगे एगभूए । तणं से सूरिया देवे समणं भगवंतं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करे, वंद नम॑सति, वंदित्ता नमंसित्ता नियगपरिवालसद्धिं संपरिवुडे तमेव दिव्वं जाणविमाणं दुरूहति दुरूहित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए । ११२ – तत्पश्चात् उस सूर्याभदेव ने अपनी सब दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवानुभाव-प्रभाव को समेट लिया — अपने शरीर में प्रविष्ट कर लिया और शरीर में प्रविष्ट करके क्षणभर में अनेक होने से पूर्व जैसा अकेला था वैसा ही एकाकी बन गया । इसके बाद सूर्याभ देव ने श्रमण भगवान् महावीर को दक्षिण दिशा से प्रारम्भ करके तीन बार प्रदक्षिणा की, वन्दन - नमस्कार किया । वन्दन - नमस्कार करके अपने पूर्वोक्त परिवार सहित जिस यान- विमान से आया था उसी दिव्य-यान-विमान पर आरूढ़ हुआ। आरूढ़ होकर जिस दिशा से जिस ओर से आया था, उसी ओर लौट गया। गौतमस्वामी की जिज्ञासा : भगवान् का समाधान ११३ – 'भंते' त्ति भयवं गोयमे समणं भगवंतं महावीरं वंदति नम॑सति, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी– सूरियाभस्स णं भंते ! देवस्स एसा दिव्वा देविड्डी दिव्वा देवज्जुती दिव्वे देवाणुभावे १. कहीं कहीं यह पाठान्तर देखने में आता है— 'तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जिट्ठे अन्तेवासी इंदभूई नामं अणगारे गोयमसगोत्ते सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए वज्जरिसहनारायसंघयणे कणगपुलगनिघसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूडसरीरे संखित्तविपुलतेयलेस्से चउदसपुव्वी चउनाणोवगए सव्वक्खरसन्निवाई समणस्स भगवतो महावीरस्स अदूरसामंतं उडुंजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगए संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमा विहरइ । तणं से भगवं गोय जायसड्ढे जायसंसए जायकोउहल्ले उप्पन्नसड्ने उप्पन्नसंसए उप्पन्नकोउहल्ले संजायसड्ढे संजायसंसए संजायकोउहल्ले समुप्पण्णसड्ढे समुप्पण्णसंसए समुप्पण्णकोउहल्ले उट्ठाए उट्ठेइ उट्ठाए उट्ठत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवंतं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति, तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेत्ता वंदति नम॑सति वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी' ‘उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी शिष्य गौतम गोत्रीय, सात हाथ ऊंचे, समचौरस संस्थान एवं वज्रऋषभनाराच संहनन वाले, कसौटी पर खींची गई स्वर्ण रेखा तथा कमल की केशर के समान गौरवर्ण वाले, उग्रतपस्वी, कर्मवन को दग्ध करने के लिए अग्निवत् जाज्वल्यमान तप वाले, तप्त तपस्वी— आत्मा को तपानेवाले, महातपस्वी——–दीर्घतप करनेवाले, उदार - प्रधान, घोर कषायादि के उन्मूलन में कठोर, घोरगुण——दूसरों के द्वारा दुरनुचर मूलोत्तर गुणों से सम्पन्न घोरतपस्वी बड़ी-बड़ी तपस्यायें करने वाले, घोर ब्रह्मचर्यवासी —— अन्यों के लिए
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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