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________________ ६० राजप्रश्नीयसूत्र कहिं गते ? कहिं अणुप्पविढे ? ११३– तदनन्तर—सूर्याभदेव के वापस जाने के अनन्तर—'हे भदन्त' इस प्रकार से संबोधित कर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके विनयपूर्वक इस प्रकार पूछा प्रश्न हे भगवन् ! सूर्याभदेव की वह सब पूर्वोक्त दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव-प्रभाव कहां चला गया ? कहां प्रविष्ट हो गया—समा गया ? ११४- गोयमा ! सरीरं गते सरीरं अणुप्पविढे । ११४– उत्तर— हे गौतम! सूर्याभदेव द्वारा रचित वह सब दिव्य देव ऋद्धि आदि उसके शरीर में चली गई, शरीर में प्रविष्ट हो गई—समा गई, अन्तर्लीन हो गई। ११५– से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ सरीरं गते, सरीरं अणुप्पविद्वे ? ११५ – प्रश्न- हे भदन्त! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि शरीर में चली गई, शरीर में अनुप्रविष्ट अन्तर्लीन हो गई? ११६– गोयमा ! से जहानामए कूडागारसाला सिया-दुहतो लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा णिवाया णिवायगंभीरा, तीसे णं कूडागारसालाए अदूरसामंते एत्थ णं महेगे जणसमूहे चिट्ठति, तए णं से जणसमूहे एगं महं अब्भवद्दलगं वा वासबद्दलगं वा महावायं वा एज्जमाणं वा पासति, पासित्ता तं कूडागारसालं अंतो अणुप्पविसित्ता णं चिट्ठइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चति—'सरीरं अणुप्पविद्वे' । __ ११६– हे गौतम! जैसे कोई एक भीतर-बाहर गोबर आदि से लिपी-पुती, बाह्य प्राकार—परकोटे से घिरी हुई, मजबूत किवाड़ों से युक्त गुप्त द्वार वाली निर्वात–वायु का प्रवेश भी जिसमें दुष्कर है, ऐसी गहरी, विशाल कूटाकार—पर्वत के शिखर के आकार वाली शाला हो। उस कूटाकार शाला के निकट एक विशाल जनसमूह बैठा हो। उस समय वह जनसमूह आकाश में एक बहुत बड़े मेघपटल को अथवा जलवृष्टि करने योग्य बादल को अथवा कठिन ब्रह्मचर्य में लीन, शारीरिक संस्कारों और ममत्व का त्याग करने वाले, विपुल तेजोलेश्या को संक्षिस करके शरीर में समाहित करने वाले, चौदह पूर्वो के ज्ञाता, मति आदि मनपर्याय पर्यन्त चार ज्ञानों से समन्वित, सर्व अक्षरों और उनके संयोगजन्य रूपों को जानने वाले गौतम नामक अनगार श्रमण भगवान् महावीर से न अतिदूर और न अति समीप अर्थात् उचित स्थान में स्थित होकर ऊपर घुटने और नीचा मस्तक रखकर मस्तक नमाकर ध्यान रूपी कोष्ठ में विराजमान होकर संयम तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे। तत्पश्चात् भगवान् गौतम को तत्त्वविषयक श्रद्धा जिज्ञासा हुई, संशय हुआ, कुतूहल हुआ, श्रद्धा उत्पन्न हुई, संशय उत्पन्न हुआ, कुतूहल उत्पन्न हुआ, विशेषरूप से श्रद्धा उत्पन्न हुई, विशेषरूप से संशय उत्पन्न हुआ, विशेष रूप से कतहल उत्पन्न हुआ, जब विशेष रूप से श्रद्धा उत्पन्न हुई, विशेष रूप से संशय उत्पन्न हुआ और विशेष रूप से कुतूहल उत्पन्न हुआ। तब अपने स्थान से उठ खड़े हुए और उठकर जहां श्रमण भगवान् महावीर विराज रहे थे, वहां आये, वहां आकर दक्षिण दिशा से प्रारम्भ कर श्रमण भगवान् महावीर की प्रदक्षिणा की। तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा करके वन्दन और नमस्कार किया, वन्दन नमस्कार करके इस प्रकार कहा—निवेदन किया-।'
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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