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________________ राजप्रश्नीयसूत्र अनुरूप स्थिर होकर अभिनय करके बताना 'क' की आकृति का अभिनय कहलायेगा। इसी प्रकार लिपि सम्बन्धी शेष दूसरे सभी अभिनयों के लिए भी समझ लेना चाहिए। १०२– असोयपल्लवप० च, अंबपल्लवप० च, जंबूपल्लवप० च, कोसंबपल्लवप० च, पल्लवप० च णाम उवदंसेंति । १०२— तत्पश्चात् अशोकपल्लव (अशोकवृक्ष का पत्ता), आम्रपल्लव, जम्बू (जामुन) पल्लव, कोशाम्रपल्लव की आकृति-जैसी रचना से युक्त पल्लवप्रविभक्ति नामक दिव्य नाट्यविधि प्रदर्शित की। १०३- पउमलयाप० जाव (नागलयाप० असोगलयाप० चंपगलयाप० चूयलयाप० वणलयाप० वासंतियलयाप० अइमुत्तयलयाप० कुंदलयाप०) सामलयाप० च लयाप०२ च णामं उवदंसेंति । १०३- तदनन्तर पद्मलता यावत् नागलता, अशोकलता, चंपकलता, आम्रलता, वनलता, वासंतीलता, अतिमुक्तकलता और श्यामलता की सुरचना वाला लताप्रविभक्ति नामक नाट्याभिनय प्रदर्शित किया। १०४– दुयणाम उवदंसेंति । विलंबियं णाम उव० । दुयविलबियं णामं उव० । अंचियं, रिभियं, अंचियरािभयं, आरभडं, भसोलं, आरभडभसोलं, उप्पयनिवयपवत्तं, संकुचियं पसारियं रयारइयं भंतं संभंतं णामं दिव्वं णट्टविहिं उवदंसेंति । १०४– इसके पश्चात् अनुक्रम से द्रुत, विलंबित, द्रुतविलंबित, अंचित, रिभित, अंचितरिभित, आरभट,. भसोल और आरभटभसोल नामक नाट्यविधियों का अभिनय प्रदर्शित किया। तदनन्तर उत्पात—(ऊपर नीचे उछलने कूदने) निपात, संकुचित-प्रसारित, भय और हर्षवश शरीर के अंगोपांगों को सिकोड़ना और फैलाना, रयारइय (?) भ्रान्त और संभ्रान्त सम्बन्धी क्रियाओं विषयक दिव्य नाट्यअभिनयों को दिखाया। विवेचन— पूर्वोक्त नाट्यविधियों का स्वरूप-प्रतिपादन नाट्यविधिप्राभृत में किया गया है। परन्तु पूर्वो के विच्छिन्न होने से इन विधियों का पूर्ण रूप से जैसा का तैसा वर्णन करना सम्भव नहीं है। वर्तमान में भरत का नाट्यशास्त्र उपलब्ध है। जिसमें नाट्य, संगीत आदि से सम्बन्धित विषयों की जानकारी दी गई है। यहां देवों ने जिन नाट्यों का प्रदर्शन किया है, उनमें से कुछ एक के नाम तो इस नाट्यशास्त्र में भी आये हैं, यथा संकुचित, प्रसारित, द्रुत, विलंबित, अंचित इत्यादि। सूत्र ९२ से १०४ पर्यन्त संगीत और वाद्यों के वर्णन के साथ नाट्यविधियों के अभिनयों का वर्णन किया गया है। अनेक अभिनय तो ऐसे हैं जिनके भाव समझ में आ सकते हैं। इनमें से कतिपय पशुपक्षियों, वनस्पतियों, जगत् के अन्य पदार्थों, प्राकृतिक प्रसंगों और उत्पातों एवं लिपि-आकारों से सम्बन्धित हैं। __१०५- तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य समामेव समोसरणं करेंति जाव १. 'पल्लव पल्लव प.' इति पाठान्तरम् । २. 'लया लया प.' इति पाठान्तरम् ।
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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