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________________ ५४ राजप्रश्नीयसूत्र ९२— तत्पश्चात् उन देवकुमारों और देवकुमारियों ने उक्त क्रम से चन्द्रोद्गमप्रविभक्ति, सूर्योद्गमप्रविभक्ति युक्त अर्थात् चन्द्रमा और सूर्य के उदय होने की रचना वाले उद्गमनोद्गमन नामक दिव्य नाट्यविधि को दिखाया। ९३– चंदागमणप० च सूरागमणप० च आगमणागमणप० च णाम ..... उवदंसेंति । __९३— इसके अनन्तर उन्होंने चन्द्रागमन, सूर्यागमन की रचना वाली चन्द्र सूर्य आगमन नामक दिव्य नाट्यविधि का अभिनय किया। ९४- चंदावरणप० सूरावरणप० च आवरणावरणप० णामं उवदंसेंति । ९४— तत्पश्चात् चन्द्रावरण सूर्यावरण अर्थात् चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण होने पर जगत् और गगन मण्डल में होने वाले वातावरण की दर्शक आवरणावरण नामक दिव्य नाट्यविधि को प्रदर्शित किया। ९५- चंदत्थमणप० च सूरत्थमणप० अत्थमणऽत्थमणप० णामं उवदंसेंति । ९५- इसके बाद चन्द्र के अस्त होने, सूर्य के अस्त होने की रचना से युक्त अर्थात् चन्द्र और सूर्य के अस्त होने के समय के दृश्य से युक्त अस्तमयनप्रविभक्ति नामक नाट्यविधि का अभिनय किया। ९६-चंदमंडलप० च सूरमंडलप० च नागमंडलप० च जक्खमंडलप० च भूतमंडलप० च रक्खस-महोरग-गन्धव्वमंडलप० च मंडलमंडलप० नाम उवदंसेंति । ९६- तदनन्तर चन्द्रमण्डल, सूर्यमण्डल, नागमण्डल, यक्षमडल, भूतमण्डल, राक्षसमण्डल, महोरगमण्डल और गन्धर्वमण्डल की रचना से युक्त अर्थात् इन सबके मण्डलों के भावों का दर्शक मण्डलप्रविभक्ति नामक नाट्य अभिनय प्रदर्शित किया। ९७– 'उसभमंडलप० च सीहमंडलप० च हयविलंबियं गयवि० हयविलसियं गयविलसियं मत्तहयविलसियं मत्तगजविलसियं मत्तहयविलंबियं मत्तगयविलंबियं दुतविलंबियं णामं णट्टविहं उवदंसेंति । ९७- तत्पश्चात् वृषभमण्डल, सिंहमण्डल की ललित गति, अश्व गति और गज की विलम्बित गति, अश्व और हस्ती की विलसित गति, मत्त अश्व और मत्त गज की विलसित गति, मत्त अश्व की विलम्बित गति, मत्त हस्ती की विलम्बित गति की दर्शक रचना से युक्त द्रुतविलम्बित प्रविभक्ति नामक दिव्य नाट्यविधि का प्रदर्शन किया। १. 'णाम' शब्द से सर्वत्र 'णामं दिव्वं णट्टविहं' यह पद ग्रहण करना चाहिए। २. किसी-किसी प्रति में निम्न प्रकार का पाठ है उसभललियविक्कंतं सीहललियविक्कंतं हयविलंबियं गयवि० हयविलसियं गयविलसियं मत्तहयविलसियं मत्तगजविलसियं मत्तहयवि, मत्तगयवि, दुयविलम्बियं णामं णट्ठविहं उवदंसंति । इसके बाद वृषभ-बैल की ठुमकती हुई ललित गति, सिंह की ठुमकती हुई ललित गति, अश्व की विलंबित गति, गज की विलंबित गति, मत्त अश्व की विलसित गति, मत्त गज की विलसित गति, मत्त अश्व की विलंबित गति, मत्त गज की विलंबित गति की दर्शक रचनावाली द्रुतविलंबित नामक नाट्यविधि को दिखाया। ३. 'वि०' पद से 'विलंबित' पद ग्रहण करना चाहिए।
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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