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________________ नाट्याभिनयों का प्रदर्शन जार, मार, पुष्पावलि, पद्मपत्र, सागरतरंग, वासन्तीलता और पद्मलता के आकार की रचनारूप दिव्य नाट्यविधि का अभिनय करके बतलाया । ८८ — एवं च एक्किक्कियाए णट्टविहीए समोसरणादिया एसा वत्तव्वया जाव दिव्वे देवरमणे पवत्ते या वि होत्था । ५३ ८८- इसी प्रकार से प्रत्येक नाट्यविधि को दिखलाने के पश्चात् दूसरी प्रारम्भ करने के अन्तराल में उन देवकुमारों और देवकुमारियों के एक साथ मिलने से लेकर दिव्य देवक्रीड़ा में प्रवृत्त होने तक की समस्त वक्तव्यता [कथन] पूर्ववत् सर्वत्र कह लेना चाहिए। ८९ – तए णं ते बहवे देवकुमारा देवकुमारियाओ य समणस्स भगवतो महावीरस्स हामिअ-उसभ - तुरग - नर-मगर - विहग-वालग - किन्नर - रुरु- सरभ- चमर-कुंजर - वणलय- पउमलयभत्तिचित्तं णामं दिव्वं णट्टविहिं उवदंसेंति । ८९— तदनन्तर उन सभी देवकुमारों और देवकुमारियों ने श्रमण भगवान् के समक्ष ईहामृग, वृषभ, तुरगअश्व, नर-मानव, मगर, विहग-पक्षी, व्याल- सर्प, किन्नर, रुरु, सरभ, चमर, कुंजर, वनलता और पद्मलता की आकृति-रचना-रूप दिव्य नाट्यविधि का अभिनय दिखाया। ९०— इसके बाद उन देवकुमारों और देवकुमारियों ने एकतोवक्र (जिस नाटक में एक ही दिशा में धनुषाकार श्रेणि बनाई जाती है), एकतश्चक्रवाल (एक ही दिशा में चक्राकार श्रेणि बने), द्विधातश्चक्रवाल (परस्पर सम्मुख दो दिशाओं में चक्र बने) ऐसी चक्रार्ध चक्रवाल नामक दिव्य नाट्यविधि का अभिनय दिखाया। ९०- एगतो वंकं एगओ चक्कवालं दुहओ चक्कवालं चक्कद्धचक्कवालं णामं दिव्वं विहिं उवदंसंति । ९१ – चंदावलिपविभत्तिं च सूरावलिपविभत्तिं च वलयावलिपविभत्तिं च हंसावलिप०२ च गावलिप० च तारावलिप० मुत्तावलिप० च कणगावलिप० च रयणावलिप० च णामं दिव्वं ट्टविहिं वदंसेंति । ९१ – इसी प्रकार अनुक्रम से उन्होंने चन्द्रावलि, सूर्यावलि, वलयावलि, हंसावलि, एकावलि, तारावलि, मुक्तावलि, कनकावलि और रत्नावलि की प्रकृष्ट - विशिष्ट रचनाओं से युक्त दिव्य नाट्यविधि का अभिनय प्रदर्शित किया। १. ९२ – चंदुग्गमणप० च सूरुग्गमणप० च उग्गमणुग्गमणप० च णामं दिव्वं णट्टविहिं उवसेंति । २. किसी किसी प्रति में निम्नलिखित पाठ है— एगतो वक्कं दुहओ वंकं एगतो खहं दुहओ खहं एगओ चक्कवालं दुहओ चक्कवालं चक्कद्धचक्कवालं णामं दिव्वं णाट्टविहिं उवदंसंति । अर्थात् तत्पश्चात् एकतोवक्र, द्विधातोवक्र, एक ओर गगनमंडलाकृति, दोनों ओर गगनमंडलाकृति, एकतश्चक्रवाल द्विधातश्चक्रवाल ऐसी चक्रार्ध और चक्रवाल नामक दिव्य नाट्यविधि का अभिनय दिखाया। 'प०' अक्षर सर्वत्र 'पविभत्तिं ' शब्द का सूचक है ।
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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