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राजप्रश्नीयसूत्र
७३ – तए णं समणे भगवं महावीरे सूरियाभेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे सूरियाभस्स देवस्स एयम णो आढाति, णो पारियाणति, तुसिणीए संचिट्ठति ।
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७३—– तब सूर्याभदेव के इस प्रकार निवेदन करने पर श्रमण भगवान् महावीर ने सूर्याभदेव के इस कथन का आदर नहीं किया, उसकी अनुमोदना नहीं की, किन्तु वे मौन रहे ।
विवेचन — आत्मविज्ञानी भगवान् की स्थितप्रज्ञ दशा को देखते हुए यह स्वाभाविक है कि वे सूर्याभदेव के निवेदन को आदर न दें, उदासीन - मौन रहें, परन्तु सूर्याभदेव की मनोभूमिका को देखते हुए वह उनके सामने नाटक दिखाने के सिवाय और कर भी क्या सकता था ? भक्तों की दो कोटियां हैं— पहली मन, वचन, काय से अपने भजनीय का अनुसरण करने वालों अथवा अनुसरण करने के लिए प्रयत्नशील रहने वालों की। ये बाह्य प्रदर्शनों के बजाय भजनीय के शुद्ध अनुसरण को ही भक्ति समझते हैं। दूसरी कोटि है प्रशंसकों की, जो भजनीय का अनुसरण करने योग्य पुरुषार्थशाली नहीं होने से उनके प्रशंसक होकर सन्तोष मानते हैं। ऐसे प्रशंसक बाह्य-प्रदर्शन के सिवाय आंतरिक भक्ति तक पहुंच नहीं सकते हैं। ये प्रशंसक बाह्य-प्रदर्शन के प्रति भजनीय की उदासीनता को समझते हुए भी अपनी प्रसन्नता के लिए बाह्य-प्रदर्शन के अतिरिक्त और कुछ कर सकें, वैसे नहीं होते हैं । यही औपचारिक भक्ति आविर्भाव होने का कारण प्रतीत होता है जो सूर्याभदेव के निवेदन से स्पष्ट है। इसके साथ ही यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि भगवान् के मौन रहने में 'यद् यदाचरति शिष्टः तत् तदेवेतरो जनः ' इस उक्ति का तत्त्व भी गर्भित है। टीकाकार ने सूर्याभदेव की इस नाटकविधि को स्वाध्याय आदि कर्त्तव्य का विघातक बताया है—' गौतमादीनां च नाट्यविधेः स्वाध्यायादिविघातकारित्वात् ।
७४—– - तए णं से सूरिया देवे समणं भगवन्तं महावीरं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासीतुब्भे णं भंते ! सव्वं जाणह जाव उवदंसित्तए त्ति कट्टु समणं भगवन्तं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदति नम॑सति, वंदित्ता नमसित्ता उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमति, अवक्कमित्ता वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहणति, समोहणित्ता संखिज्जाई जोयणाइं दण्डं निस्सिरति, अहाबायरे० अहासुहुमे ० १ । दोच्चं पि विउव्वियसमुग्धाएणं जाव बहुसमरमणिज्जं भूमिभागं Paar | से जहानामए आलिंगपुक्खरे इ वा जाव मणीणं फासो
तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागे पिच्छाघरमण्डवं विउव्वति अणेगखंभसयसंनिविट्टं वण्णओ - अन्तो बहुसमरमणिज्जं भूमिभागं उल्लोयं अक्खाडगं च मणिपेढियं च विव्वति । तीसे णं मणिपेढियाए उवरि सीहासणं सपरिवारं जाव दामा चिट्ठन्ति ।
७४— तत्पश्चात् सूर्याभदेव ने दूसरी और तीसरी बार भी पुन: इसी प्रकार से श्रमण भगवान् महावीर से निवेदन
किया—
हे भगवन्! आप सब जानते हैं आदि, यावत् नाट्यविधि प्रदर्शित करना चाहता हूं। इस प्रकार कहकर उसने दाहिनी ओर से प्रारम्भ कर श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वन्दन - नमस्कार
२.
देखें सूत्र संख्या ३०-४४
१. देखें सूत्र संख्या १३
३.
देखें सूत्र संख्या ४५-५१