________________
सूर्याभदेव द्वारा मनोभावना का निवेदन
किया और वन्दन - नमस्कार करके उत्तर पूर्व दिशा में गया। वहां जाकर वैक्रियसमुद्घात करके संख्यात योजन लम्बा दण्ड निकाला। यथाबादर (असार) पुद्गलों को दूर करके यथासूक्ष्म (सारभूत) पुद्गलों का संचय किया । इसके बाद पुनः दुबारा वैक्रिय समुद्घात करके यावत् बहुसमरमणीय भूमिभाग की रचना की। जो पूर्ववर्णित आलिंग पुष्कर आदि के समान सर्वप्रकार से समतल यावत् रूप रस गंध और स्पर्श वाले मणियों से सुशोभित था ।
उस अत्यन्त सम और रमणीय भूमिभाग के मध्यातिमध्य भाग में एक प्रेक्षागृहमंडप – नाटकशाला की रचना की। वह अनेक सैकड़ों स्तम्भों पर संनिविष्ट था इत्यादि वर्णन पूर्व के समान यहां कर लेना चाहिए ।
४७
उस प्रेक्षागृहमंडप के अन्दर अतीव समतल, रमणीय भूमिभाग, चन्देवा, रंगमंच और मणिपीठिका की विकुर्वणा की और उस मणिपीठिका के ऊपर फिर उसने पादपीठ, छत्र आदि से युक्त सिंहासन की रचना यावत् उसका ऊपरी भाग मुक्तादामों से शोभित हो रहा था ।
७५— तए णं से सूरियाभे देवे समणस्स भगवतो महावीरस्स आलोए पणामं करेति, करिता 'अणुजाण मे भगवं, ति कट्टु सीहासणवरगए तित्थयराभिमुहे संणिसणे ।'
तए णं से सूरिया देवे तप्पढमयाए नानामणिकणगरयणविमलमहरिहनिउणओवियमिसिमिसिंतविरइयमहाभरणकडग-तुडियवरभूसणुज्जलं पीवरं पलम्बं दाहिणं भुयं पसारेति । तओ णं सरिसयाणं सरित्तयाणं सरिव्वयाणं सरिसलावण्ण-रूवजोव्वणगुणोववेयाणं एगाभरण-वसणगहिअणिज्जोआणं दुहतो संवेल्लियग्गणियत्थाणं उप्पीलियचित्तपट्टपरियरसफेणकावत्तरइयसंगयपलंबवत्थंत-चित्तचिल्ललगनियंसणाणं एगावलिकण्ठरइयसोभंतवच्छपरिहत्थभूसणाणं अट्ठसयं णट्टसज्जाणं देवकुमाराणं णिग्गच्छति ।
७५— तत्पश्चात् उस सूर्याभदेव ने श्रमण भगवान् महावीर की ओर देखकर प्रणाम किया और प्रणाम करके 'हे भगवन्! मुझे आज्ञा दीजिये ' कहकर तीर्थंकर की ओर मुख करके उस श्रेष्ठ सिंहासन — पर सुखपूर्वक बैठ गया । इसके पश्चात् नाट्यविधि प्रारम्भ करने के लिए सबसे पहले उस सूर्याभदेव ने निपुण शिल्पियों द्वारा बनाये गये अनेक प्रकार की विमल मणियों, स्वर्ण और रत्नों से निर्मित भाग्यशालियों के योग्य, देदीप्यमान, कटक त्रुटित आदि श्रेष्ठ आभूषणों से विभूषित उज्ज्वल पुष्ट दीर्घ दाहिनी भुजा को फैलाया— लम्बा किया।
उस दाहिनी भुजा से एक सौ आठ देवकुमार निकले। वे समान शरीर आकार, समान रंग-रूप, समान वय, समान लावण्य, युवोचित गुणों वाले, एक जैसे आभरणों, वस्त्रों और नाट्योपकरणों से सुसज्जित, कन्धों के दोनों ओर लटकते पल्लवों वाले उत्तरीय वस्त्र (दुपट्टे) धारण किए हुए, शरीर पर रंग-बिरंगे कंचुक वस्त्रों को पहने हुए, हवा का झोंका लगने पर विनिर्गत फेन जैसी प्रतीत होने वाली झालर युक्त चित्र-विचित्र देदीप्यमान, लटकते अधोवस्त्रों (चोगा) को धारण किए हुए, एकावली आदि आभूषणों से शोभायमान कण्ठ एवं वक्षस्थल वाले और नृत्य करने के लिए तत्पर थे।
७६— तयणंतरं च ण नानामणि जाव पीवरं पलंबं वामं भुयं पसारेति, तओ णं सरिस - याणं, सरित्तयाणं, सरिव्वयाणं, सरिसलावण्ण-रूवजोव्वणगुणोववेयाणं, एगाभरण-वसणगहि
१.
सूत्र संख्या ७५