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________________ सूर्याभदेव द्वारा मनोभावना का निवेदन ४५ उक्त समग्र कथन का सारांश यह है कि योग्यता, निमित्त और उन निमित्तों का सदुपयोग करने के लिए तदनुकूल प्रवृत्ति करने पर ही जीव मुक्ति प्राप्त करता है । अतएव सर्वदा पुरुषार्थ के प्रति समर्पित होकर जीव को प्रयत्नशील रहना चाहिए । ७१ – 'सूरियाभा' इ समणं भगवं महावीरे सूरियाभं देवं एवं वदासी सूरियाभा ! तुमं णं भवसिद्धिए नो अभवसिद्धिते जाव' चरिमे णो अचरिमे । ७१ - 'सूर्याभ !' इस प्रकार से सूर्याभदेव को सम्बोधित कर श्रमण भगवान् महावीर ने सूर्याभदेव को उत्तर दिया हे सूर्याभ! तुम भवसिद्धिक- भव्य हो, अभवसिद्धिक- अभव्य नहीं हो, यावत् चरम शरीरी हो अर्थात् इस भव के पश्चात् का तुम्हारा मनुष्यभव अन्तिम होगा, अचरम शरीरी नहीं हो अर्थात् हे सूर्याभ ! तुम भव्य हो, सम्यग्दृष्टि हो, परमित संसार वाले हो, तुम्हें बोधि की प्राप्ति सुलभ है, तुम आराधक हो और चरम शरीरी हो । सूर्याभदेव द्वारा मनोभावना का निवेदन ७२ - तए णं से सूरियाभे देवे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे तुट्ठ चित्तमाणंदिए परमसोमणस्सिए समणं भगवंतं महावीरं वंदति नम॑सति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी— तुब्भे णं भंते ! सव्वं जाणह, सव्वं पासह, सव्वं कालं जाणह सव्वं कालं पासह, सव्वे भावे जाणह सव्वे भावे पासह । जाणंति णं देवाणुप्पिया ! मम पुव्विं वा पच्छा वा मम एयारूवं दिव्वं देविड्डुिं दिव्वं देव दिव्वं देवाणुभावं लद्धं पत्तं अभिसमण्णागयं ति । तं इच्छामि णं देवाणुप्पियाणं भत्तिपुव्वगं गोयमाइयाणं समणाणं निग्गंथाणं दिव्वं देविडिं दिव्वं देवजुडं दिव्वं देवाणुभावं दिव्वं बत्तीसतिबद्धं नट्टविहं उवदंसित्तए । ७२— तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर के इस कथन को सुनकर उस सूर्याभदेव ने हर्षित सन्तुष्ट चित्त से आनन्दित और परम प्रसन्न होते हुए श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार किया और वन्दन - नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया— भदन्त ! आप सब जानते हैं और सब देखते हैं, सर्वत्र दिशा - विदिशा, लोक- अलोक में विद्यमान समस्त पदार्थों को जानते हैं और देखते हैं । सर्व काल—– अतीत - अनागत- वर्तमान काल को आप जानते और देखते हैं; सर्व भावों को आप जानते और देखते हैं। अतएव हे देवानुप्रिय ! पहले अथवा पश्चात् लब्ध, प्राप्त एवं अधिगत इस प्रकार की मेरी दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति तथा दिव्य देवप्रभाव को भी जानते और देखते हैं। इसलिए आप देवानुप्रिय की भक्तिवश होकर मैं चाहता हूं कि गौतम आदि निर्ग्रन्थों के समक्ष इस दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति — कांति, दिव्य देवानुभाव — प्रभाव तथा बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्यविधि— नाट्यकला को प्रदर्शित करूं । १. देखें सूत्र संख्या ७०
SR No.003453
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_rajprashniya
File Size19 MB
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